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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग
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या उड़दों का आहार किया करते थे ।
( ५ - ६ ) लगातार आठ महीने तक भगवान् इन्हीं तीन वस्तुओं पर निर्वाह करते रहे । पन्द्रह दिन, महीना, दो महीने यहाँ तक कि छह महीने उन्होंने पानी का सेवन किए बिना बिता दिए । रूखे सूखे बचे हुए अन्न का भोजन करते हुए वे किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखते हुए विचरते थे ।
(७) इस प्रकार का अन्न भी वे वेले, तेले, चौले या पाँच पाँच उपवासों के बाद उपयोग में लाते थे। ऐसा करते हुए वे शरीर की समाधि का ध्यान रखते थे। मन में कभी ग्लानि न माने देते थे तथा नियाणा भी न करते थे।
(८) हेय और उपादेय के स्वरूप को जानने वाले भगवान् महावीर ने स्वयं पाप नहीं किया, दूसरों से नहीं कराया और न करने वाले को भला समझा ।
( 8 ) भगवान् नगर अथवा गाँव में जाकर दूसरों के लिए किये हुए आहार की गवेषणा करते थे। इस प्रकार शुद्ध आहार लेकर उसे सावधानी से उपयोग में लाते थे ।
(१०) भिक्षा लेने के लिए जाते समय भगवान् के मार्ग में कौए वगैरह भूखे पक्षी तथा दूसरे प्राणी अपना आहार करते हुए वैठे रहते थे । भगवान् उन्हें किसी प्रकार की बाधा पहुॅचाए बिना 1 निकल जाते थे ।
( ११-१२ ) यदि मार्ग में या दाता के द्वार पर ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, अतिथि, चण्डाल, बिल्ली या कुत्ते वगैरह को आहार मिल रहा हो तो उसे देख कर भगवान् किसी प्रकार का विघ्न नहीं डालते थे । मन में किसी प्रकार की अप्रीति किए बिना धीरे धीरे चले जाते थे । यहाँ तक कि भगवान् भिक्षाटन करते हुए कुन्थु वगैरह छोटे से छोटे प्राणी की भी हिंसा नहीं करते थे ।
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