________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह. पाचवां भाग 473 कुण्डरीक को युवराज बना कर धर्मघोष स्थविर के पास दीक्षा ले ली। बहुत वर्षों तक संयम का पालन करसिद्धिपद को माप्त किया। एक समय फिर वे ही स्थविरमुनि पुण्डरीफिणीनगरी फेनलिनीवन उद्यान में पधारे। धर्मोपदेश मुन कर राजा पुण्डरीक ने तो श्रावक व्रत अङ्गीकार किये और कुण्डरीक ने दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वेजनपद में विहार करने लगे। अन्तमान्त पाहार करने से उनके शरीर में दाइज्वर की बीमारी उत्पन्न होगई। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए एक समय वे पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे। स्थविर मुनि को पूछ कर कुण्डरीक मुनि पुण्डरीक राजा की यानशाला में ठहरे। राजा ने मुनि के योग्य चिकित्सा करवाई जिससे वे थोड़े ही समय में स्वस्थ होगए। उनके साथ वाले मनि विहारकर गये किन्तु कुण्डरीक मुनि ने विहार नहीं किया और साधु के आचार में भी शिथिलता करने लगे। तब पुण्डरीक राजा ने उन्हें समझाया। पुण्डरीक के समझाने पर कुण्डरीक मुनि विहारफर गये।कुछ समय तक स्थविर मुनि के साथ उग्र विहार करते रहे फिन्तु फिर शिषिलाचारी बन कर वे अकेले ही पण्डरीकिणी नगरी में आगये।कुण्डरीक मुनि को इस प्रकार शिथिलाचारी देख कर पुण्डरीफ राजा ने उन्हें बहुत समझाया किन्तु वे समझ नहीं, प्रत्युत राजगद्दी लेकर भोग भोगने की इच्छा करने लगे। पण्डरीक राजा ने उनके भावों को जानकर उन्हें राजगद्दी पर स्थापित किया और स्वयमेव पंचमुष्टि लोच करके प्रव्रज्या अभीकारकी। 'स्थविर भगवान् को वन्दना करने के पश्चात् मुझे माहार फरना योग्य है' ऐसा मभिग्रह करके उनोंने पुण्डरीकिणी नगरी से विहार कर दिया ।ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे स्थविरमगवान् की सेवा में उपस्थित हुए। गुरु के मुख से महावत अंगीकार किये / तत्पश्चात् स्वाध्यादि करके गुरु कीमाज्ञा लेकर भिक्षा