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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां माग mmmmwwwwwwwwwwwwwwwrwwwimmmmmmmwom भँवर जाल में पड़ी हुई लकड़ी चक्कर काटती रहती है उसी प्रकार जीव संसार चक्र में भटकता रहता है। अनन्त काल तक भटकने के बाद किसी किसी जीव का अज्ञान कुछ कम होता है तो भी राग
और द्वेष के कारण सच्चे सुख की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकता। अज्ञान की पन्दता के कारण जीव को ऐसा मान बहुत बार होता है कि सुख और दुःख बाह्य वस्तुओं में नहीं है, अपने ही परिणामों के कारण आत्मा सुखी और दुखी होता है फिर भी राग और द्वेष की तीव्रता के कारण वह ठीक मार्ग में प्रवृत्ति नहीं कर सकता। मोह के कारण पूर्वपरिचित विषयों को ही सुख या दुःख का साधन मान कर उन्हीं में हर्प और विषाद का अनुभव करता है। ऐसे समय में जीव का कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता इस लिए वह विकास की ओर अग्रसर भी नहीं होता। इसी स्थिति को आध्यात्मिक विकास काल की स्थिति कहा जाता है।
(ख) अज्ञान तथा राग द्वेष के चक्र का बल सदा एक समान नहीं रहता। आत्मिक वल कर्मों के बल से अनन्तगुणा है, इस लिए आत्मा में जब शुभ भाव आते हैं तो कर्मों का वल एकदम घट जाता है। जिस प्रकार लाखों मन घास के लिए आग की एक चिनगारी पर्याप्त है, उसी प्रकार शुभ भाव रूपी आग कर्मों की महान् राशि को भस्मसात् कर देती है। जब आत्मा की चेतना जागृत होती है, राग और द्वेष कुछ ढीले पड़ते हैं तो आत्मा की शक्ति ठीक मार्ग पर काम करने लगती है। उसी समय आत्मा अपने ध्येय को निश्चित करके उसे प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय करता है और उसके लिए प्रवृत्ति भी करता है। उसी समय आध्यात्मिक विकास की नींव रखी जाती है । इसके बाद आत्मा अपनी ज्ञान
औरवीर्यशक्तियों द्वारा राग और द्वेष के साथ युद्ध करने लगता है। कोई आत्मा लगातार विजय प्राप्त करता जाता है और अन्त