________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
wwwnnnone
गुरु बुद्धि और कुधर्म में धर्म बुद्धि रखता है। जीव की इसी अवस्था को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं।
(२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- जो जीव औपशमिक सम्यक्स वाला है परन्तु अनन्तानुबन्धी कपाय के उदय से सम्यक्त को छोड़ कर मिथ्याव की ओर झुक रहा है, वह जीव जब तक मिथ्यास प्राप्त नहीं करता तब तक सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है। जीव की इस अवस्था कोसास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। इसकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः पावलिका है।
इस गुणस्थान में यद्यपिजीव का झुकाव मिथ्याल की ओर होता है तथापि जिस प्रकार खीर खाकर उसका वमन करने वाले मनुष्य कोखीर का विलक्षण स्वाद अनुभव में आता है इसी प्रकार सम्यक्ख से गिर कर मिथ्याल की ओर झुके हुए जीव को भी कुछ काल के लिए सम्यक्त गुण का आस्वाद अनुभव में आता है। अत एव इस गुणस्थान को सास्वादन सम्यग्दृष्टि गणस्थान कहते हैं।
(३) सम्यमिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान-मिश्रमोहनीय के उदय से जब जीव की दृष्टि कुछ सम्यक् (शुद्ध) और कुछ मिथ्या (अशुद्ध) रहती है उसे सम्यमिथ्यादृष्टि कहा जाता है और जीव की इस अवस्था को सम्यमिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कपाय का उदय न रहने से प्रात्मा में शुद्धता एवं मिथ्यात्व मोहनीय का उदय रहने से अशुद्धता रहती है, इसी लिए इस गणस्थान में मिश्र परिणाम रहते हैं। जैसे गुड मिले हुए दही का स्वाद कुछ मीठा और कुछ खट्टा होता है, इसी प्रकार इस अवस्था में जीव की श्रद्धा कुछ सच्ची तथा कुछ मिथ्या होती है। उस समय जीव किसी बात पर दृढ होकर विश्वास नहीं करता। इस गुणस्थान के समय बुद्धि में दुर्बलता सीआजाती है। इस कारण से जीव सर्वज्ञ द्वारा कहे गए तत्वों पर न तो एकान्त