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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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किन्तु बुझती नहीं, इसी प्रकार संज्वलन कषाय के उदय से चारित्र की निर्मलता में फरक पड़ जाता है, आवरण नहीं होता । आत्मा जब संज्वलन कषाय को दबाता है तो सातवें गुणस्थान से बढ़ता हुआ ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थान तक पहुँचता है। उपशमश्रेणी वाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है और वहाँ की स्थिति पूरी होने पर वापिस दसवें गुणस्थान में आ जाता है । फिर उपशान्त कर्म उदय में आ जाने से नीचे के गुणस्थानों में आ जाता है। चपकश्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान में उन प्रकृतियों का सर्वथा क्षय कर ग्यारहवें में न जाकर सीधा बारहवें में चला जाता है | दर्शन और चारित्र दोनों शक्तियाँ उस समय पूर्ण विकसित हो जाती हैं। इसके बाद जीव तेरहवें गुणस्थान में पहुँचता है। चारों घाती कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से उस समय जीव को केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति हो जाती है। फिर भी मन, वचन और काया (शरीर) रूप तीन योगों का सम्बन्ध रहने के कारण आत्मा की स्थिरता पूर्ण नहीं होने पाती । चौदहवें गुणस्थान में वह पूर्ण हो जाती है। इस के बाद शीघ्र ही शरीर छूट जाता है और आत्मा अपने स्वभाव में लीन हो जाता है। इस के बाद आत्मा सदा एक सा रहता है, इसी को मोक्ष कहते हैं। आत्मा की शक्तियों का पूर्ण विकास मोक्ष है ।
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गुणस्थानों के नाम और स्वरूप इस प्रकार हैं
(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान- मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जिस व्यवस्था में जीव की दृष्टि (श्रद्धा या ज्ञान ) मिथ्या (उल्टी) होती है उसे मिध्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं। जैसे धतूरे के बीज को खाने वाले अथवा पीलिए रोग वाले को सफेद चीज भी पीली दिखाई देती है अथवा पित्त के प्रकोप वाले रोगी को मिश्री भी कड़वी लगती है उसी प्रकार मिथ्याखी जीव कूदेव में देव वृद्धि, कुरु में