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________________ ८२ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अध्यवसायों की भिन्नताएं आठवें गुणस्थान के अध्यवसायों की भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती हैं। दसवें गुणस्थान की अपेक्षा नवें गुणस्थान में बादर (स्थूल) सम्पराय (कषाय) उदय में आता है तथा नवें गुणस्थान के समसमयवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति (भिन्नता) नहीं होती। इसी लिए इस गुणस्थान का 'अनिवृत्तिवादरसम्पराय' ऐसा सार्थक नाम शास्त्र में प्रसिद्ध है। नवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव दो प्रकार के होते हैंएक उपशमक और दूसरे क्षपक । जो चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन करते हैं वे उपशमक कहलाते हैं। जो चारित्रमोहनीय कर्म का क्षपण (आय) करते हैं वे क्षपक कहलाते हैं। (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान- इस गुणस्थान में सम्पराय अर्थात लोभ कषाय के सूक्ष्म खण्डों का ही उदय रहता है। इस गुणस्थान के जीव भी उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार के होते हैं। संज्वलन लोभ कषाय के सिवाय बाकी कषायों का उपशम या क्षय तो पहले ही हो जाता है। इस लिए दसवें गुणस्थान में जीव संज्वलन लोभ का उपशम या क्षय करता है । उपशम करने वाला जीव उपशमफ तथा क्षय करने वाला जीव लपक कहलाता है। (११) उपशान्तकपायचीतरागछमस्थ गुणस्थान- जिनके कपाय उपशान्त हुए हैं, जिन को राग अर्थात् माया और लोभ का भी विल्कुल उदय नहीं है और जिन को छद्म (आवरण भूत घाती कर्म) लगे हुए हैं वे जीव उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थ कहलाते हैं और उनके स्वरूप को उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान कहते हैं । ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मानी गई है। इस गुणस्थान में वर्तमान जीव आगे के गुणस्थानों को प्राप्त
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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