________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ८१ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. गुणस्थान में माने जाते हैं, क्योंकि नवें गुणस्थान में जितने जीव समसमयवर्ती रहते हैं उन सब के अध्यवसाय एफ सरीखे (तुल्य शुद्धि वाले) होते हैं, जैसे प्रथम समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसाय समान होते हैं इसीप्रकार दूसरे समय से लेकर नवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक तुल्य समय में वर्तमान त्रैकालिक जीवों के अध्यवसाय भी तुल्य ही होते हैं। सभी तुल्य अध्यवसायों को एक ही अध्यवसायस्थान मान लिया जाता है, इस बात को समझने की सरल रीति यह भी है कि नवें गुणस्थान के अध्यवसायों के उतने ही वर्ग हो सकते हैं जितने उस गुणस्थान के समय हैं। एक एक वर्ग में चाहे त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों की अनन्त शक्तियाँ शामिल हों, परन्तु प्रतिवर्ग अध्यवसायस्थान एक ही माना जाता है, क्योंकि एक वर्ग के सभी अध्यवसाय शुद्धि में बराबर ही होते हैं किन्तु प्रथम समय के अध्यवसाय स्थान से दूसरे समय के अध्यवसायस्थान अनन्तगुण विशुद्ध होते हैं। इस प्रकार नवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक पूर्व पूर्व समय के अध्यवसाय स्थान से उत्तर उत्तर समय के अध्यवसाय स्थान को अनन्त गुण विशुद्ध समझना चाहिए । आठवें गुणस्थान से नवें गुणस्थान में यही विशेषता है कि श्राठवें गुणस्थान में तो समान समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसाय शुद्धि के तरतमभाव से असंख्यात वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं, परन्तु नवें गुणस्थान में समसमयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों की समान शुद्धि के कारण एक ही वर्ग हो सकता है। पूर्व पूर्व गुणस्थान की अपेक्षा उत्तर उत्तर गुणस्थान में कषाय के अंश बहुत कम होते जाते हैं और कषाय (संक्लेश) की कमी के साथ साथ जीव परिणामों की शुद्धि बढ़ती जाती है। पाठवें गुणस्थान से नवें गुणस्थान में विशुद्धि इतनी अधिक हो जाती है कि उसके