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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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होती हैं किन्तु आठवें गुणस्थान में पूर्व ही होती हैं क्योंकि पहले गुणस्थानों की अपेक्षा आठवें गुणस्थान में अध्यवसाय की शुद्धि अत्यन्त अधिक होती है । अत एव पहले के गुणस्थानों में बहुत कम स्थिति का और अति अल्प रस का घात होता है परन्तु आठवें गुणस्थान में अधिक स्थिति का तथा अधिक रस का घात होता है । इसी तरह पहले के गुणस्थानों में गुणश्रेणी की कालमर्यादा अधिक होती है तथा जिन दलिकों की गुणश्रेणी (रचना, स्थापना ) की जाती है वे दलिक भी अल्प ही होते हैं। आठवें गुणस्थान में गुणश्रेणी योग्य दलिक तो बहुत अधिक होते हैं परन्तु श्रेणी का कालमान बहुत कम होता है, तथा पहले गुणस्थानों की अपेक्षा आठवें गुणस्थान में गुणसंक्रमण बहुत कर्मों का होता है अत एव पूर्व होता है और आठवें गुणस्थान में इतनी अल्पस्थिति के कर्म
जाते हैं कि जितनी अल्पस्थिति वाले कर्म पहले के गुणस्थानों में कभी नहीं बँधते । इस प्रकार स्थितिघात आदि पदार्थों का पूर्व त्रिधान होने से इस आठवें गुणस्थान का दूसरा नाम अपूर्वकरण गुणस्थान भी शास्त्र में प्रसिद्ध है ।
जैसे राज्य पाने की योग्यता मात्र से राजकुमार राजा कहा जाता है, वैसे ही आठवें गुणस्थानवर्ती जीव चारित्र मोहनीय के उपशमन या क्षपण के योग्य होने से उपशमक या क्षपक कहलाते हैं । चारित्र मोहनीय के उपशमन या क्षपण का प्रारम्भ तो नवें गुणस्थान में ही होता है, आठवें गुणस्थान में तो केवल उस की योग्यता होती है ।
(६) अनियट्टि चादर सम्पराय गुणस्थान- संज्वलन क्रोध, मान और माया कपाय से जहाँ निवृत्ति न हुई हो ऐसी अवस्थाविशेष को नियहि (अनिवृत्ति) वादर गुणस्थान कहते हैं ।
इस गुणस्थान की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है । एक
अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं उतने ही अध्यवसायस्थान नवें