________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सपा, पाचवा भाग 137 ~~~~~~ उनको हिलाया डुलाया भी नहीं,जिससे समय पर उन अण्डों से मयूरी के बच्चे पैदा हुए। फिर वह उन बच्चों को मयूर पोषक से शिक्षित फरा फर नृत्य और क्रीढ़ाएं करवाता हुआ आनन्द का अनुभव करने लगा। उपरोक्तष्टान्त देकर शास्त्रकार ने साधसाध्वी श्रावक श्राविका को यह उपदेश दिया है कि बीतराग जिनेश्वर देव के कहे हुए तत्त्वों में किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिए क्योंकि सन्देह ही अनर्थ का कारण है। जिन वचनों में निःशंक रहना चाहिए। यदि कदाचित् शास्त्र का कोई गहन तत्व बराबर समझ मेंन आवे तो अपनी बुद्धि की मन्दता और शानावरणीय का उदय सपा कर कभी विद्वान् आचार्य का संयोग मिलने पर उस तत्व का निर्णय फरने की बुद्धि रखनी चाहिए किन्तु शंकित न होना चाहिए / तहमेव सच्च निस्संकं जं जिणेहि पवेइयम् / अर्थात्-जो केवली भगवान् ने फरमाया है वही सत्य है। ऐसी वृद्ध श्रद्धा रखनी चाहिए क्योंकि तीर्थङ्कर देवों ने फेवल संसार के प्राणियों के परोपकार के लिए ही इन तत्वों का प्रतिपादन किया है। वैरागद्वेष और मोह से रहित होते हैं इसलिए उनको झूठ बोलने का कोई कारण ही नहीं है / अतः वीसराग जिनेश्वर के वचनों में निःशान्ति और निष्कांक्षिस होना चाहिए / (4) कछुए और शृगाल की कथा चौथा कूर्मज्ञात'अध्ययन-अपनी पॉच इन्द्रियों को वश में रखने से गुण की प्राप्ति होती है और वश में न रखने से अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं। इसके लिए दो कछओं दृष्टान्त इस अध्ययन में दिया गया है। वाराणसी नगरी के बाहर गंगा नदी के किनारे एक द्रह था।