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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
mon muamman जाता है। कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्त तक उदय में आने वाले कर्म दलिकों के साथ कर दिया जाता है और कुछ को अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद उदय में आने वाले कर्मदलिकों के साथ कर दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल ऐसा हो जाता है कि जिस में मिथ्यात्व मोहनीय का कोई कर्मदलिक नहीं रहता। अत एव जिसका अबाधा काल पूरा हो चुका है ऐसे मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के दो विभाग हो जाते हैं । एक विभाग वह जो अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उदय में रहता है और दूसरा वह जो अनिवृत्तिकरण के बाद एक अन्तर्मुहूर्त बीतने पर उदय में आता है। इन में से पहले विभाग को मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति और दूसरे को मिथ्यात्व की द्वितीय स्थिति कहते हैं। अन्तरकरण क्रिया के शुरू होने पर अनिवृत्तिकरण के अन्त तक तो मिथ्यात्व का उदय रहता है,पीछे नहीं रहता। अनिवृत्तिकरण बीत जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता है । औपशमिक सम्यक्त्व के माप्त होते ही जीव कोस्पष्टया असंदिग्ध प्रतीति होने लगती है,जैसे जन्मान्ध पुरुष को नेत्र मिलने पर। मिथ्यात्वरूप महान् रोग हट जाने से जीव को ऐसा आनन्द प्राता है जैसा किसी पुराने और भयङ्कर रोगी को स्वस्थ हो जाने पर। उस समय तत्त्वों पर दृढ श्रद्धा हो जाती है। औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति अन्तमुहूर्त होती है, क्योंकि इसके बाद मिथ्यात्व मोहनीय के वे पुद्गल जिन्हें अन्तरकरण के समय अन्तर्मुहूर्त के वाद उदय होने वाले बनाया है, वे उदय में प्राजाते हैं या क्षयोपशम रूप में परिणत कर दिए जाते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व के काल को उपशान्ताद्धा तथा अन्तरकरण काल कहते हैं। प्रथम स्थिति के चरम समय में अर्थात् उपशान्ताद्धा के पूर्व समय में जीव विशुद्ध परिणाम से उस मिथ्यात्व के तीन पुञ्ज करता है जो औपशमिफ सम्यक्त्व के