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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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नियट्टिवादर गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान से दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं-उपशमश्रेणी और चपक श्रेणी। उपशमश्रेणी वाला जीव मोहनीय की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है और तपक श्रेणी वाला जीव दसवें से सीधा बारहवें गुणस्थान में जाकर अपडिबाई (अप्रतिपाती) हो जाता है। ___ जो जीव आठवें गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं, जो प्राप्त कर रहे हैं और जो प्राप्त करेंगे उन सब जीवों के अध्यवसाय स्थानों (परिणाम भेदों) की संख्या असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के वरावर है। आठवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। अन्तमुहूर्त के असंख्यात समय होते हैं जिनमें से प्रथम समयवर्ती तीनों काल के जीवों के अध्यवसाय भी असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के तुल्य हैं। इस प्रकार दूसरे तीसरे आदि प्रत्येक समयवर्ती त्रैकालिक जीवों के अध्यवसाय भी गणना में असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर ही हैं। असंख्यात संख्या के असंख्यात प्रकार हैं। इस लिए एक एक समयवर्ती त्रैकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या और सब समयों में वर्तमान अकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या दोनों असंख्यात ही हैं, किन्तु असंख्यात होने पर भी वे दोनों तुल्य नहीं हैं।।
यद्यपि आठवें गुणस्थान में रहने वाले तीनों कालों के जीव अनन्त हैं तथापि उनके अध्यवसाय असंख्यात ही होते हैं। इस का कारण यह है कि समान समयवर्ती जीवों के अध्यवसाय यद्यपि आपस में जुदे जुदे (न्यूनाधिक शद्धि वाले) होते हैं, तथापि समसमयवर्ती बहुत जीवों के अध्यवसाय तुल्य शुद्धि वाले होने से जुदे जुदे नहीं माने जाते । प्रत्येक समय के असंख्यात अध्यवसायों में से जो अध्यवसाय कम शुद्धि वाले होते है वे जघन्य तथा जो अध्य