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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला rrrrrrmmmmmmmmmmmmmwwww mmmmmmmmmmmmmm
वे उत्कृष्ट कहे जाते हैं। इस प्रकार एक वर्ग जघन्य अध्यवसायों का होता है और दूसरा उत्कृष्ट अध्यवसायों का। इन दो वर्गों के बीच में असंख्यात वर्ग हैं जिन के सब अध्यवसाय मध्यम कहलाते हैं। प्रथम वर्ग के जघन्य अध्यवसायों की अपेक्षा अन्तिम वर्ग के उत्कृष्ट अध्यवसायों की शुद्धि अनन्तगुणी अधिक मानी गई है। बीच के सब वर्गों में पूर्व पूर्व वर्ग के अध्यवसायों की अपेक्षा पर पर के अध्यवसाय विशेष शुद्ध माने जाते हैं । सामान्यतः इस प्रकार माना जाता है कि समसमयवर्ती अध्यवसाय एक दूसरे से अनन्तभाग अधिक शुद्ध,असंख्यात भाग अधिक शुद्ध, संख्यात भाग अधिक शुद्ध, संख्यात गुण अधिक शुद्ध, असंख्यात गुण अधिक शुद्ध और अनन्तगुण अधिक शुद्ध होते हैं। शुद्धि के इन छह प्रकारों को शास्त्र में षट् स्थान कहते हैं। प्रथम समय के अध्यवसायों की अपेक्षा दूसरे समय के अध्यवसाय भिन्न ही होते हैं
और प्रथम समय के उत्कृष्ट अध्यवसायों से दूसरे समय के जघन्य अध्यवसाय भी अनन्त गण विशुद्ध होते है। इस प्रकार अन्तिम समय तक पूर्व पूर्व समय के अध्यवसायों से पर पर समय के अध्यवसाय भिन्न भिन्न समझने चाहिएं तथा पूर्व पूर्वेसमय के उत्कृष्ट अध्यवसायों की अपेक्षा पर पर समय के जघन्य अध्यवसाय भी अनन्त गुण विशुद्ध समझने चाहिएं। __ भाठवें गुणस्थान के समय जीव पाँच वस्तुओं का विधान करता है। जैसे-स्थितिघात,रसघात,गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्वस्थिति बन्ध।
(क)जो कर्म दलिक भागे उदय में आने वाले हैं,उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा अपने अपने उदय के नियत समयों से हटा देना अर्थात् ज्ञानावरण आदि कर्मों की लम्बी स्थिति को अपवर्तनाकरण के द्वारा घटा देना स्थितिघात है।।