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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
NAAMANA
मुमुक्षु का कर्तव्य है। (उत्तराध्ययन महानिर्ग्रन्यीय नामक २० वा अध्ययन) ८५५-योग अथवा प्रयोगगति पन्द्रह __ मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से मन वचन और कोयवर्गणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्म प्रदेशों में होने वाले परिस्पंद, कंपन या हलन चलेन को भी योग कहते हैं। आलम्बन के भेद से इसके तीन भेद हैं-मन, वचन और काया। इनमें मन के चार। वचन के चार और काया के सात, इस प्रकार कुल पन्द्रह भेद हो जाते हैं। पनवणा सूत्र में योग के स्थान पर प्रयोग शब्द है। इन्हीं को प्रयोगगति भी कहा जाता है
(१) सत्य मनोयोग-मन का जोव्यापार सत् अर्थात् सज्जनपुरुष या साधुओं के लिये हितकारी हो, उन्हें मोक्ष की ओर ले जाने वाला हो उसे सत्यमनोयोग कहते हैं अथवा जीवादि पदार्थों के अनेकान्त रूप यथार्थ विचार को सत्य मनोयोग कहते हैं।
(२) असत्य मनोयोग- सत्य से विपरीत अर्थात् संसार की ओर ले जाने वाले मन के व्यापार को असत्य मनोयोग कहते हैं अथवा जीवादि पदार्थ नहीं हैं, एकान्त सत् हैं इत्यादि एकान्त रूप मिथ्या विचार असत्य मनोयोग है।
(३) सत्यमृपा मनोयोग- व्यवहार नय से ठीक होने पर भी निश्चय नय से जो विचार पूर्ण हो न हो, जैसे- किसी उपवन में धव, खैर,पलाश आदि के कुछ पेड़ होने पर भी अशोकक्ष अधिक होने से उसे अशोक वन कहना । वन में अशोकक्षों के होने से यह बात सत्य है और धव आदि के वृक्ष होने से मृपा(असत्य)भी है।
(४)असत्यामृपा मनोयोग-जो विचार सत्य नहीं है और असत्य भी नहीं है उसे असत्यामृपा मनोयोग कहते हैं। किसी प्रकार का विवाद खड़ा होने पर वीतराग सर्वज्ञ के बताए हुए