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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वे मिथ्यात्व की अपेक्षा चरम हैं,शेष अचरम। मिथ्यादृष्टि नैरयिक जो फिर मिथ्यात्व सहित नैरयिक भाव प्राप्त नहीं करेंगे वे चरम हैं, शेष अचरम । मिश्रदृष्टि जीव चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं। चौवीस दण्डकों में इसी प्रकार जानना चाहिए किन्तु एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर ऐसा जानना चाहिए क्योंकि ये जीव मिश्रदृष्टि नहीं होते।
(७) संयत द्वार- संयत जीव चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं । जिन जीवों को फिर से संयत भाव प्राप्त नहीं होगा वे चरम हैं, शेष अचरम । असंयत जीव भी चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। इसी तरह संयतासंयत (देशविरत) भी चरमाचरम होते हैं। नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत (सिद्ध) अचरम हैं।
(८)कपाय द्वार-सकषायी (क्रोधकपायी यावत् लोभकपायी) चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। अकपायी जीव और सिद्ध चरम नहीं किन्तु अचरम हैं। अकपायी मनुष्य पद की अपेक्षा चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। __(8) ज्ञान द्वार- ज्ञानी (मति ज्ञानी से मनःपर्यय ज्ञानी तक) चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। केवलज्ञानी अचरम हैं क्योंकि केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर फिर प्राणी केवलज्ञान से गिरता नहीं। अज्ञानी (मति अज्ञानी, श्रत अज्ञानी और विभंगज्ञानी) चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं।
(१०) योग द्वार-सयोगी (मनयोगी, वचनयोगी,काययोगी) चरम और अचरम दोनों होते हैं। अयोगी जीव अचरम होते हैं।
(११) उपयोग द्वार- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग वाले जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं।
(१२) वेद द्वार- सवेदक (पुरुपवेदी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी) जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। अवेदक जीव