________________ श्री जैन सिद्धान्त दोल सग्रह, पाचवा भाग 417 शक्ति को आकृत कर देते हैं और ये ही अज्ञानियों को दुःख के कारण हैं। यहविचार कर विवेकी पुरुष को स्वयं सत्य और सदागम की खोज करनी चाहिए एवं प्राणियों पर मैत्रीभाव रखना चाहिए। (3) सत्यान्वेषी विवेकी पुरुष को यह सोचना चाहिए कि स्वकृत कर्मों से दुखी हुए जीव को माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्र और पुत्रवधू आदि घनिष्ठ सम्बन्धी भी दुःखों से नहीं छुढ़ा सकते। वास्तल में धर्म ही सत्य है एवं उसके विना संसार में कोई भी शरण रूप नहीं है। (4) अपनी बुद्धि से उपरोक्त बात सोच कर एवं सम्यग्दृष्टि होकर जीव को विषयों में रहे हुए भासक्ति भाव को मिटा देना चाठिये, स्वजनों में राग न रखना चाहिए एवं पूर्व परिचय की इच्छा भी न करनी चाहिए। (5) उपरोक्त बात को ही शास्त्रकार दूसरे शब्दों में दोहरा कर उसका फल बताते हैं / गाय, घोड़े, मणि, कुंडल एवं सेवक वर्ग इन सभी का त्याग करने एवं संयम का पालन करने से यह श्रात्मा इसी भन में वैक्रियलब्धि द्वारा एवं परलोक में देव बन कर इच्छानुसार रूप बनाने वाला हो जाता है। (६)सत्य के स्वरूप का विशप स्पष्टीकरण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-स्थावर एवं जंगम सम्पत्ति,धान्य एवं गृह सामग्री ये सभी, कर्मों का फल भोगते हुए जीव को दुःख से नहीं बचा सकते। (7) सत्य स्वरूप फा प्रतिपादन करते हुए शास्त्रकार आश्व निरोध का उपदेश देते हैं___ इष्ट संयोग और अनिष्ट वियोग से होने वाला मुख सभी जीवों को इष्ट है, उन्हें अपनी आत्मा प्रिय है तथा वे उसकी रक्षा करना चाहते हैं। यह सोच कर भय एवं वैर से निवृत्त होकर आत्मा को किसी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिए।