________________ 418 भी सेठिया जैन मन्यमाला ~~ . ....... . . . * ~ ~ ~ wwmoram arrrrrrrror (८)प्राणातिपात रूप प्राश्रव निरोध का उपदेश देकर शास्त्रकार परिग्रह रूप पाश्रव निरोध के लिये कहते हैं- प्रथम एवं अन्तिम आश्रवनिरोध के कथन से वीच के भावों का निरोध भी समझ लेना चाहिये। धन धान्यादि परिग्रह को साक्षात् नरक समझ कर तृणमात्र का भी परिग्रह न करना चाहिए / क्षुधाविफल होने पर उसे अपने पात्र में गृहस्थ द्वारा दिया गया भोजन करना चाहिये / (8) आश्रव निरोध रूप संयम क्रिया अनावश्यक है इस मान्यता के विषय में शास्त्रकार कहते हैं___ मुक्ति मार्ग का विचार करते हुए कई लोग कहते हैं कि प्राणातिपानादि रूप पाप का त्याग किये बिना ही तत्त्वज्ञान मात्र से जीद सभी दुःखों से छूट जाता है। (10) औपध के ज्ञान मात्र से ही रोगी स्वस्थ नहीं होता किन्तु उसके सेवन से / इसी प्रकार क्रिया शून्य तत्त्वज्ञान भी भव दःखों से नहीं छड़ा सकता, यह सत्य है। वन्ध और मोक्ष को मानने वाले जो लोग ज्ञान को मुक्ति का अंग कहते हैं परन्तु मुक्ति के लिये कोई उपाय नहीं करते, वे लोग सत्य से परे हैं। केवल वाक्शक्ति से अपनी आत्माको आश्वासन ही देते हैं। (११)उक्त मान्यता के विषय में शास्त्रकार और भी कहते है'तत्त्व ज्ञान से ही मक्ति हो जाती है ये वचन एवं संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाएं आत्मा को पापों से बचाने में समर्थ नहीं हैं। न मन्त्र रूप विद्या की शिक्षा ही पाप से आत्मा की रक्षा कर सकती है। अपने को पंडित समझने वाले एवं हिंसादि पापों में फंसे हुए ये लोग वास्तव में वाल (अज्ञानी) हैं। (12) अब सामान्यतः मुक्ति मार्ग के विरोधियों को दोप दिखाते हुए कहते हैं