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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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की और चार लाख तिर्यञ्चों की। छठे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक मनुष्य की १४ लाख जीवयोनियॉपाई जाती हैं।
(२४) निमित्त द्वार-पहले चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय के निमित्त से होते हैं। पाँचवें से बारहवेतक आठ गुणस्थान यथायोग्य चारित्र मोहनीय के चय, उपशम याक्षयोपशम से। तेरहवॉ और चौदहवाँ योग के निमित्त से होते हैं। .
(२५) चारित्र द्वार- पहले चार गुणस्थानों में चारित्र नहीं होता।पाँचवें में एकदेश सामायिक चारित्र होता है। छठे और सातवें में तीन चारित्र पाए जाते हैं-सामायिक,छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि। आठवें और नवें में दो-सामायिक और छेदोषस्थापनीय।दसवें में सूक्ष्मसम्पराय । ग्यारहवें से लेकर चौदहवें तक केवल एक यथारख्यात चारित्र होता है।
(२६ ) समफितद्वार-क्षायिक समफित चौथे से लेकर चौदहवें गणस्थान तक पाया जाता है। उपशम सम्यक्त्व चौथे से ग्यारहवें तक।नायोपशमिक वेदक सम्यक्त्व चौथे से सातवें तक । सास्वादन सम्यक्त्व दूसरे गुणस्थान में होता है। पहले और तीसरे गुणस्थान में सम्यक्त्व नहीं होता।
(२७) अन्तरद्वार-पहले गुणस्थान में तीन भंग वताए गए हैं(१)अनादि अपर्यवसित (२) अनादि सपर्यवसित (३)सादि सपर्यवसित । इनमें तीसरे भंग का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ६६सागरोपम झाझरा है। दूसरे से ग्यारहवें गुणस्थान तक अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अर्द्धपुद्गल परावर्तन है। वारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में अन्तर नहीं होता।
किसी गुणस्थान को एक बार छोड़ कर दुबारा उसे प्राप्त करने में जितना समय लगता है उसे भन्तर या व्यवधान काल कहते हैं। पहले गुणस्थान के प्रथम और द्वितीय भंग में अन्तर नहीं होता