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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांपवां भाग २१७
mmmmmwww भाइओ! मैं दासी हूँ, चिकने के लिए आई हूँ। दूसरी ओर रथी एक कोने पर खड़ा आँसू बहा रहा था। वसुमती से अलग होने के लिए अपने भाग्य को कोस रहा था।
वसुमती के चेहरे को देख कर सभी लोग कहते--यह किसी बड़े घर की लड़की मालूम पड़ती है। कौतूहल वश उसके पास जाकर पूछते-देवि! तुम कौन हो ? यहाँ क्यों खड़ी हो! .
वसुमती उत्तर देती-मैं दासी हूँ। यहाँ विकने के लिए आई हूँ। मेरी कीमत वीस लाख मोहरें हैं। मेरे पिता को कीमत देकर जो चाहे मुझे खरीद सकता है। मैं घर का सारा काम करूँगी। घर कोसुधार,गी। किसी प्रकार की त्रुटि न रहने दूँगी । उसने अपनी वास्तविकता को बताना ठीक न समझा। . यद्यपि वसुमती की सौम्य प्राकृतिकोदेख कर सभी उसे अपने घर ले जाना चाहते थे किन्तु एकदासी के लिए इतनी बड़ी रकम - देना किसी ने ठीक न समझा।
उसी समय एक वेश्यापालकी में बैठी हुई वहाँ आई। वहनगर की प्रसिद्ध वेश्या थी । नृत्य, गान और दूसरी कलाओं में उसके समान कोई न था। नगर में वह 'नगरनायिका' के रूप में प्रसिद्ध थी। अपने पाप के पेशे से अपार धन बटोर चुकी थी। __ वसुमती को देख कर उसे अपार हर्ष हुआ। साथ में भाश्चर्य भी हुआ कि ऐसी सुन्दरी बाजार में विकरही है। वेश्या ने सोचाऐसी सुन्दरी को पाकर मेरा धन्धा चमक उठेगा। थोड़े ही दिनों में सारी रकम वसूल हो जायगी। इसलिए मुंह मांगे दाम देने को तैयार हो गई।
उसने वसुमती से कहा- तुम मेरे साथ चलो। साथ में अपने पिता को भी ले लो। मैं उन्हें बीस लाख मोहरें दे दूँगी।
वेश्या खूब सनी हुई थी। रेशमी वस्त्र पहिन रखे थे। आभू