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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वसुमती ने सोचा-मेरे कारण ही यह विरोध खड़ा हुआ है। इस लिए मुझे ही इसे निपटाना चाहिए। यह सोच कर वह रथी की स्त्री से कहने लगी-माताजी! आपको घबराने की आवश्यकता नहीं है। आप की इच्छा शीघ्र पूरी हो जायगी। ___ इसके बाद उसने रथी से कहा- पिनानी ! इसमें नाराज होने की कोई बात नहीं है, अगर माताजी बीस लाख मोहरें लेकर मुझे छुटकारा दे रही हैं तो यह मेरे लिए हर्ष की बात है । इनका तो मुझ पर महान् उपकार है । इनका सन्देह दूर करना भी हम दोनों के लिए ज़रूरी है इस लिए आप मेरे साथ बाजार में चलिए और मुझे वेच कर माताजी का सन्देह दूर कीजिए। अगर आपको मेरे सतीत्व पर विश्वास है तो कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
रथी वसुमती को छोड़ना नहीं चाहता था किन्तु वमुमती ने अपने व्यवहार और उपदेश द्वारा उसे इतना प्रभावित कर रक्खा था कि वह उसे अपनी पाराध्य देवी मानता था । विना कुछ कहे उसकी बात को मान लेता था। वह बोला- वेटी! मेरा दिल तो नहीं मानता कि तुम सरीरवी मङ्गलमयी साध्वी सती कन्या को अलग करूँ किन्तु तुम्हारे सामने कुछ भी कहने का साहस नहीं होता, इस लिए इच्छान होने पर भी मान लेता हूँ। मुझे दृढ विश्वास है, तुम जो कुछ कहोगी उससे सभी का कल्याण होगा। ___ रथी और वसुमती बाजार के लिए तैयार हो गए। वसुमती ने रथी की स्त्री को प्रणाम किया और कहा मेरे कारण आपको बहुत कष्ट हुआ है इसके लिए मुझे क्षमा कीजिए | उसने परिवार के सभी लोगों से नम्रता पूर्वक विदा ली , दासी के कपड़े पहने और रथी के साथ वाजार का रास्ता लिया। बाजार के चौराहे में खड़ी होकर वसुमती स्वयं चिल्लाने लगी