________________
२१८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पणों से लदी थी। उसकी वोली और चाल ढाल में बनावट थी। नमुमती उसकी भावभंगी से समझ गई कि यह कोई भद्र औरत नहीं है। उसने वेश्या से पूछा- माताजी! आप मुझे किस कार्य के लिए खरीदना चाहती है ? आपके घर का प्राचार क्या है?
वेश्या ने उत्तर दिया-तू तो भोली है। नित्य नए शृङ्गारकरना, नए नए वस्त्र तथा माभूषणों से अपने शरीर को सुसज्जित करना तथा नित्य नए सुख भोगना हमारे यहाँ का आचार है। मेरे घर पर तुझे दासीपना न करना होगा किन्तु बड़े बड़े पुरुषों को अपना दास बनाए रखना होगा। मैं अपनी नृत्य और गान कला तुझे सिखा देंगी। फिर ऐसा कौन है जो तेरे आगे न झुक जाय।
वेश्या की वात समाप्त होते ही वसमती ने कहा- माताजी! आप मुझे जिस उद्देश्य से खरीदना चाहती हैं और जो कार्य लेना चाहती हैं वह मुझसे न होगा। मेरा और आपका आचार एक दूसरे से विरुद्ध है। आप पुरुषों को विभ्रम और मोह में डाल कर पतन की ओर ले जाना चाहती हैं और मैं उन्हें इस मोह से निकाल कर ऊँचा उठाना चाहती हूँ। जिस जाल में आप उन्हें फंसाना चाहती हैं, मैं उससे छुड़ाना चाहती हूँ।इसलिए मुझे खरीदने से आपको कोई लाभ न होगा। मैं आपके साथ नहीं चलेंगी।
वेश्या ने वसुमती को सब तरह के प्रलोभन दिए । उसे एक दासी की हालत से उठा कर सांसारिक सुखों की चरम सीमा पर पहुँचाने का वचन दिया किन्तु वसुमती अपने सतीत्व के सामने स्वर्गीय भोगों को भी तुच्छ समझती थी। संसार के सारे सख इकडे होकर भी उसे धर्म से विचलित न कर सकते थे। उसने वश्या के सभी मलोभनों को ठुकरा दिया।
वेश्या ने सोचा- यह लड़की इस प्रकार न मानेगी। इस भीड़ में खड़े हुए बड़े बड़े आदमी मेरी हाँ में हाँ मिलाने वाले हैं। जिसे