________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२६९
उनका अनुसरण करना चाहिए। इस निश्चय पर पहुँचने से उसके मुख पर प्रसन्नता छा गई। उसके हृदय का सारा खेद मिट गया।
राजीमती की माता उस समय फिर समझाने आई। राजीमती के दीक्षा लेने के निश्चय को जान कर उसने कहा- वेटी ! संयम को पालना सरल नहीं है। बड़े बड़े योद्धा भी इस के पालन करने में समर्थ नहीं होते। सग्दी और गरमी में नंगे पाँव घूमना, भिक्षा में रूखा सूखा जैसा आहार मिल जाय उसी पर सन्तोष करना, भयङ्कर कष्ट पड़ने पर भी मन में क्रोध या ग्लानि न आने देना, शत्र और मित्र सभी पर समभाव रखना, मानसिक विचारों पर विजय प्राप्त करना सरल नहीं है। तुम्हारे सरीखी महलों में पली हुई कन्या उन्हें नहीं पाल सकती। वेटी! तुम्हें अपना निर्णय समझ कर करना चाहिए।
राजीमतीने उत्तर दिया-माताजी! मैं अच्छी तरह सोच चुकी हूँ। संयमी जीवन के कष्टों का भी मुझे पूरा ज्ञान है किन्तु पति के मार्ग पर चलने में मुझे सुख ही मालूम पड़ता है। उनके बिना इस अवस्था में मुझे दुःख ही दुःख है। मेरे लिए केवल संयम ही सुख का मार्ग है, इस लिए आप दूसरी बातों को छोड़ कर मझे दीक्षा अंगीकार करने की अनुमति दीजिए।
राजीमती की माता को विश्वास हो गया कि राजीमती अपने निश्चय पर अटल है। उसने सारी बातें महाराज उग्रसेन कोकहीं। अन्त में यही निर्णय किया कि राजीमती को उसकी इच्छानुसार चलने देना चाहिए। उसके मार्ग में वाधाडालकर उसकीपात्मा को दुखी न करना चाहिए।
राजीमती ने अपने उपदेश से बहुत सी सखियों तथा दसरी महिलाओं में भी वैराग्य भावना भर दी। सात सौ स्त्रियाँ उसके साथ दीक्षा लेने को तैयार हो गई।