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__ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
फर वह विश्वप्रेम में बदल जाता है। इसके विपरीत जिस प्रेम में स्वार्थ या वासना है वह उत्तरोत्तर संकचित होता जाता है और अन्त में स्वार्थ या वासना की पूर्ति न होते देख समाप्त हो जाता है। इस का असली नाम मोह है। मोह अन्धकारमय है और प्रेम प्रकाशमय । मोह का परिणाम दुःख और अज्ञान है, प्रेम का मुख और ज्ञान। ___ राजीमती के हृदय में शुद्ध प्रेम था । इस लिए भगवान् की श्रात्मा के साथ वह भी अपनी आत्मा को ऊँची उठाने का प्रयत्न कर रही थी। भगवान् के समान अपने प्रेम को बढ़ाते हुए विश्वमेम में बदल रही थी। __ धीरे धीरे एक वर्ष पूरा हो गया। भगवान् अरिष्टनेमि का वार्षिकदान समाप्त हुआ। इन्द्र आदि देव दीक्षामहोत्सव मनाने के लिये पाए । श्रीकृष्ण तथा दूसरे यादवों ने भी खूब तैयारियाँ की। अन्त में श्रावण शुक्ला पष्ठी को भगवान् अरिष्टनेमि ने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। जो दिन एक साल पहले उनके विवाह काथा, वही आज संसार के सभी सम्बन्धों को छोड़ने का दिन बन गया। नेमिकुमार ने राजवैभव को छोड़ कर वन का रास्ता लिया। उनके साथ रथनेमि तथा दूसरे यादव कुमार भी दीक्षित हो गए। __ भगवान् अरिष्टनेमि की दीक्षा का समाचार राजीमती को भी मालूम पड़ा । समाचार सुन कर वह विचार में पड़ गई कि अब मुझे क्या करना चाहिए । इस प्रकार विचार करते करते उसे जातिस्मरण हो गया । उसे मालूम पड़ा कि मेरा भौर भगवान का प्रेम सम्बन्ध पिछले आठ भवों से चला आ रहा है। इस नवें भव में भगवान् का संयम भङ्गीकार करने का निश्चय पहले से , मुझे प्रतिबोध देने की इच्छा से ही उन्होंने स्वीकार कर लिया था। अब मुझे भी