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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भगवान् अरिष्टनेमि को केवलज्ञान होते ही राजीमती ने सात सौ सखियों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । महाराज उग्रसेन तथा श्रीकृष्ण ने उसका निष्क्रमण (दीक्षा या संसार त्याग) महोत्सव मनाया। राजकुमारी राजीमती साध्वी राजीमती बन गई। श्रीकृष्ण तथा सभी यादवों ने उसे वन्दना की। अपनी शिष्याओं सहित राजीमती तप संयम की आराधना तथा जनकल्याण करती हुई विचरने लगी । थोड़े ही समय में वह बहुश्रुत हो गई ।
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राजीमती के हृदय में भगवान् अरिष्टनेमि के दर्शन करने की पहले से ही प्रबल उत्कण्ठा थी । दीक्षा लेने के पश्चात वह और बढ़ गई। उन दिनों भगवान् गिरिनार पर्वत पर विराजते थे । महासती राजीमती अपनी शिष्याओं के साथ विहार करती हुई गिरिनार के पास आ पहुँची और उल्लास पूर्वक ऊपर चढ़ने लगी । मार्ग में जोर से चलने लगी, साथ में पानी भी बरसने लगा । काली घटाओं के कारण अन्धेरा छा गया । पास खड़े वृक्ष भी दिखाई देने बन्द हो गए। साध्वी राजीमती उस बवण्डर में पढ़ कर अकेली रह गई। सभी साध्वियों का साथ छूट गया । वर्षा के कारण उसके कपड़े भीग गए ।
धीरे धीरे आँधी का जोर कम हुआ । वर्षा थम गई । राजीमती को एक गुफा दिखाई दी। कपड़े सुखाने के विचार से वह उसी में चली गई । गुफा को निर्जन समझ कर उसने कपड़े उतारे और सुखाने के लिए फैला दिए ।
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उसी गुफा में रथनेमि धर्मचिन्तन कर रहे थे । अँधेरा होने के कारण वे राजीमती को दिखाई नहीं दिए। रथनेमि की दृष्टिराजीमती के नग्न शरीर पर पड़ी। उनके हृदय में कामवासना जागृत हो गई। एकान्त स्थान, वर्षा का समय, सामने वस्त्र रहित सुन्दरी, ऐसी अवस्था में रथनेमि अपने को न सम्भाल सके। अपने अभिप्राय