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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१५१
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अथवा मासकल्प दूसरी जगह बिना किए फिर उसी स्थान पर मासकल्प आदि करना नहीं कल्पता अर्थात् साधु जिस स्थान पर जितने समय रहे उससे दुगुना समय दूसरी जगह बिताने के बाद ही फिर पूर्वस्थान पर निवास कर सकता है। जिस स्थान पर चतुमास करे, दो चतुर्मास दूसरी जगह करने के बाद ही फिर उस स्थान पर चतुर्मास कर सकता है। इसी प्रकार जहाँ मासकल्प करे उसी जगह फिर मासफल्प दो महीनों के बाद ही कल्पता है। ___ इस लिए साधु को एक स्थान पर चतुमोस या मासकल्प के बाद फिर उसी जगह चतुर्मास यामासकल्प नहीं करना चाहिए साधु को शास्त्र में बताए हुए पार्ग के अनुसार चलना चाहिए। शास्त्र में जैसी आज्ञा है वैसा ही करना चाहिए।
(१२) जो साधु रात्रि के पहले तथा पिछले पहर में आत्मचिन्तन करता है और विचारता है, मैंने क्या कर लिया है, क्या करना बाकी है और ऐसी कौनसी बात है जिसे मैं कर सकता हूँ फिर भी नहीं कर रहा हूँ, वही साधु श्रेष्ठ होता है।
(१३)मात्मा साधु शान्त चित्त से विचार करे- जब मेरे से कोई भूल हो जातीतो दूसरेलोग क्या सोचते हैं। मेरी आत्मा स्वयं उस समय क्या कहती है। मेरे से भूल होनाक्यों नहीं छटता है इस प्रकार सम्यक् विचार करता हुआ साधु भविष्य में दोषों से छुटकारा पा जाता है।
(१४ ) साधु जब कभी मन, वचन या काया को पाप की ओर झुकता हुआ देखे तो शीघ्र हीखींच कर सन्मार्ग में लगादे,जैसलगाम खींचकर कुमार्ग में चलते हुए घोड़े को सन्मार्ग में चलाया जाता है।
(१५) जिसने चंचल इन्द्रियों को जीत लिया है। जो संयम में पूरे धैर्य वाला है। मन,वचन और कायारूप तीनों योग जिस के वश में हैं,ऐसे सत्पुरुष को प्रतिबुद्धजीवी (सदा जागता रहने वाला)