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श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला ~~ •were. ~~~rnmmmmmmmroman. .. m. ww . rimar.mmm merone कहा जाता है,क्योंकि वह अपने जीवन को संयम में विताता है।
(१६) सब इन्द्रियों को वश में रख कर समाधि पूर्वक आत्मा की रक्षा करनी चाहिए। जो अात्मा सुरक्षित नहीं है वह जातिपथ अर्थात् जन्ममरण रूप संसार को प्राप्त होती है और सुरक्षित अर्थात् पापों से बचाई हुई आत्मा सब दुःखों का अन्त करके मोक्ष रूप सुख को प्राप्त होती है। (दशवकालिक सूत्र २ चूलिका) ८६२-सभिक्खु अध्ययन की सोलह गाथाएं
संसार में पतन के निमित्त बहुत हैं, इसलिए साधक को सदा सावधान रहना चाहिए। जिस प्रकार साधु को वस्त्र, पात्र, आहार आदि आवश्यक वस्तुओं में संयम की रक्षा का ध्यान रखना आवश्यक है उसी प्रकारमान प्रतिष्ठा की लालसा को रोकना भी साध के लिए परमावश्यक है। त्यागी जीवन के लिए जो विद्याएं उपयोगी न हों, उनके,सीखने में अपने समय का दुरुपयोग न करना चाहिए । तपश्चर्या और सहिष्णुता ये आत्मविकास के मुख्य साधन हैं। इनका कथन उत्तराध्ययन सूत्र के 'सभिक्खु' नामक पन्द्रहवें अध्ययन की १६गाथाओं में विस्तार के साथ किया गया , है। उन गाथाओं का भावार्थ क्रमशः यहॉ दिया जाता है
(१) विवेक पूर्वक सच्चे धर्म का पालन करने वाला, कामभोगों से विरक्त, अपने पूर्वाश्रम के सम्बन्धियों में आसक्ति न रखते हुए अज्ञात घरों से भिक्षावृत्ति करके आनन्द पूर्वक संयम धर्म का पालन करने वाला ही सच्चा भिक्षु (साधु) है।
(२) राग से निवृत्त,पतन एवं असंयम से अपनी आत्मा को बचाने वाला, परीपह और उपसर्गों को सहन कर समस्त जीवों को श्रात्मतुल्य जानने वाला और किसी भी वस्तु में मृच्छित न होने वाला ही भिक्षु (साधु) है।