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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, पाषचा भाग ३६१
marr mmmr वृषभ, रथ तथा छत्र श्रादि की छाया के अनुसार जो गति हो उसे छायागति कहते हैं अर्थात् छाया में रहते हुए गति करना।
(१०) छायानुपात गति- पुरुष के अनुसार छाया चलती है, छाया के अनुसार पुरुष नहीं चलता । पुरुष के अनुसरण से होने वाली छाया की गति को छायानुपात गति कहते हैं। . (११)लेश्या गति-कृष्ण लेश्या नील लेश्या को प्राप्त करके
उसी के वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श रूप में परिणत हो जाती है। इसी प्रकार नील लेश्या कापोत लेश्या को प्राप्त करके तद्रप में परिणत हो जाती है। कापोतलेश्या तेजोलेश्या के रूप में, सेजोलेश्या पद्मलेश्या के रूप में और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या के रूप में। लेश्याओं के इस प्रकार परिणत होने को लेश्या गति कहते हैं।
(१२) लेश्यानुपात गति- जिस लेश्या वाले पुद्गलों को ग्रहण करक जीव मरण प्राप्त करता है उसी लेश्या वाले पुद्गलों के साथ उत्पन होता है। जैसे मरते समय कृष्णलेश्या होने पर जन्म लेते समय भी वही रहेगी। इसी प्रकार सभी लेश्याओं के लिये जानना चाहिए । इसे लेश्यानुपात गति कहते हैं।
(१३) उद्दिश्यप्रविभक्तिक गति- यदि भाचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणी, गणधर या गणावच्छेदक आदि किसी को उद्देश करके गमन किया जाय तो उसे उद्दिश्यप्रविभक्तिक गति कहते हैं।
(१४) चतुःपुरुष प्रविभक्तिफ गति- इस में चार भांगे हैं(क) चार पुरुष एक साथ तैयार हो और एक ही साथ प्रयाण करें। (ख) एक साथ तैयार हो किन्तु भिन्न भिन्न समय में प्रयाण करें। (ग) भिन्न भिन्न समय में तैयार हों और भिन्न भिन्न समय में ही प्रयाण करें। (घ) भिन्न भिन्न समय में तैयार हों किन्तु एक ही समय में गति करें।