________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग 477 mmmmmmmm नोहीलए नोऽवि अखिसइज्जा,मंच कोहंचचएस पुज्जो॥१२॥ जे माणिआ सययं माणयंति, जत्तरेण कन्नं व निवेसयंति। ते माणए माणरिहे तबस्सी, मिइंदिए सच्चरए स पज्जो // 13 // तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सुचाण मेहावि सुभासिआई। चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चक्कसायावगए स पुज्जो // 14 // गुरुमिह सययं पडिअरिअमुणी, जिणमयनिउणे अभिगम कुसले। धुणिभ रयमलं पुरेकर्ड, भासुरमलं गई वइ // 15 // उत्तराध्ययन सत्र अध्ययन 20 (बोल नम्बर 854) इमा हु अन्नावि अणाहया निवा, तामेगचित्तोनिहुओ मुरणेहि मे / नियंठधम्मंलहियाणवी जहा, सीयंति एगे बहुकायरानरा॥१॥ जे पचहत्ताण महव्वयाई, सम्मं च नो फासयई पमाया / अणिग्गहप्पा य रसेस गिद्धे, न मूलश्रो छिदइ बंधणं से // 2 // आउत्तया जस्स य नत्थि कावि, परियाइ भासाइ तहेसणाए / आयाणनिक्वेवदुगंछणाए, न बीरजायं अणुजाइ मग्गं // 3 // चिरंपि से मुंडरूई भवित्ता, अथिरन्वए तवनियमेहिं भहे / चिरंपि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराए॥४॥ पुल्लेव सुट्टी जह से असारे, अयंतिते कूडकहावणे य / राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ हु जाणएम् // 5 // कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय बृहइत्ता / असंजए संजय लप्पयाणे, विणिघायमागच्छइ से चिरंपि // 6 // विसं तु पीयं जह कालकूड, हणाइ सत्यं जह कुग्गही / एसेव धम्मो विसोववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो // 7 // जो लक्षणं सुविणं पउंजमाणो, निमित्तकोऊहलसंपगाढे / कुहेड विज्जासवदारजीवी, म गच्छई सरणं तंमि काले // 8 //