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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पांचवां भाग जाते हैं-(१)क्षायोपशमिफ सम्यक्त्वी(२)औपशमिक सम्यक्त्वी और (३) क्षायिक सम्यक्त्वी। इनके फिर दो दो भेद हो जाते हैं(१) चरम शरीरी और (२) अचरम शरीरी। क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्वी अचरमशरीरी जीवों के चौथे से लेकर ग्यारहवें गणस्थान तक १४८ प्रकृतियों की सत्ता है। पञ्चसंग्रह का सिद्धान्त है कि जोजीव अनन्तांनुबन्धी४ कषायों की विसंयोजना नहीं करता वह उपशम श्रेणी का प्रारम्भ नहीं कर सकता तथा यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि नरक या तिर्यश्च की भाय बाँध कर जीव उपशम श्रेणी को नहीं प्राप्त कर सकता। इन दो सिद्धान्तों के अनुसार आठवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें तक १४२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क की विसंयोजना तथा देवायु को बॉध करजो जीव उपशम श्रेणी करता है उसके आठवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें इन चार गुणस्थानों में १४२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है। विसंयोजना आय को ही कहते हैं किन्तु आय में नष्ट किए कर्म का फिर सम्भव नहीं होता और विसंयोजना में होता है। सायिक सम्यक्त्व वाले अचरम शरीरी जीव के चौथे से लेकर भाठवें गुणस्थान तक १४१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है। अनन्तानुबन्धी चार कषाय और सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय इन सात प्रकृतियों का क्षय हो जाने से वे सत्ता में नहीं रहतीं। __औपशमिक तथा सायोपशमिक सम्यक्त्व वाले चरमशेरीरी जीवों के चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक १४५ प्रकृतियों की सत्ता होती है, क्योंकि इनके वर्तमान मनुष्यायु को छोड़ कर शेष देव,नरक और तिर्यश्च इन तीन आयु कर्म प्रकृतियों की न स्वरूपसत्ता हो सकती है और न सम्भवसत्ता।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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