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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वर्णादि इस प्रकार २६ प्रकृतियाँ बढ़ जाती हैं । उदयाधिकार की १२२ प्रकृतियों में उपरोक्त २६ मिला देने पर कुल १४८ हो जाती हैं। __ पहले तथा चौथे से लेकर ग्यारहवें तक नौ गुणस्थानों में सभी अर्थात् १४८ प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता नहीं होती, इस लिए इन दोनों में १४७ प्रकृतियों की ही सत्ता रहती है।
जिस जीव ने पहले नरक की आयु का बन्ध कर लिया है और बाद में सम्यक्त्व प्राप्त करके उसके बल से तीर्थङ्कर नामकर्म को भी बाँध लिया है वह जीव नरक में जाने से पहले मिथ्यात्व को अवश्य ही प्राप्त करता है। ऐसे जीव की अपेक्षा से ही पहले गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता मानी गई है। दूसरे यातीसरे गुणस्थान में वर्तमान कोई जीव तीर्थङ्कर नामकर्म को नहीं बॉध सकता, क्योंकि उन दोनों गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व नहीं होता। इसी प्रकार तीर्थङ्कर नामकर्म को बाँध कर भी कोई जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर दूसरे या तीसरे गुणस्थान में नहीं जाता, इसी लिए दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म को छोड़ कर शेष १४७ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है।
कर्मों की सत्ता दो प्रकार की है- सम्भवसत्ता और स्वरूपसत्ता। जीव के साथ बँधे हुए कर्मों की वर्तमान सत्ता को स्वरूपसत्ता कहते हैं और जिन कर्मों के वर्तमान अवस्था में बँधे हुए न होने पर भी बंधने की सम्भावना हो उनकी सत्ता को सम्भवसत्ता कहते हैं। ऊपर बताई गई १४७ और १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भवसत्ता की अपेक्षा से है अर्थात् उन प्रकृतियों की सत्ता हो सकती है। स्वरूपसत्ता की अपेक्षा दो प्रकार का आयुष्य कभी एक साथ नहीं रह सकता किन्तु सम्भवसत्ता की अपेक्षारह सकता है।
थान से सम्यक्त्व की अपेक्षा जीव के नीन भेद हो