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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ६६ mmmmmmmmmm rrrrowrnmmmmwwwr aw www ___.wwww हो जाता है, इसलिए सातवेंगुणस्थान में इनका उदय नहीं होता, किन्तु छठे गुणस्थान के अन्त में उदीरणा ८ प्रकृतियों की होती है। ऊपर लिखी पाँच और (१) सातावेदनीय (२) असातावेदनीय तथा (३) मनुष्यायु । इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा आगे भी किसी गुणस्थान में नहीं होती, इस लिए तेरहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में तीन प्रकृतियॉ कम हो जाती हैं।
चौदहवें गुणस्थान में किसी भी प्रकृति की उदीरणा नहीं होती क्योंकि उदीरणा होने में योग की अपेक्षा है और चौदहवें गुणस्थान में योग का निरोध हो जाता है।
सत्ताधिकार बन्ध के समय जो कर्मपुद्गल जिस कर्मस्वरूप में परिणत होते हैं उन कर्मपुद्गलों का उसी कर्म स्वरूप में आत्मा के साथ लगे रहना कर्म की सत्ता कही जाती है । कर्मपुद्गलों का प्रथम स्वरूप को छोड़ कर दूसरे कर्मस्वरूप में बदल कर आत्मा के साथ लगे रहना भी सत्ता है। कर्मों का उसी स्वरूप में लगे रहना बन्ध-सत्ता है और दूसरे स्वरूप में बदल कर लगे रहना संक्रमणसत्ता है।
सत्ता में १४८ कर्मप्रकृतियाँ मानी जाती हैं। उदयाधिकार में पॉच बन्धन और पाँच संघातन की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं, उन्हें पाँच शरीरों में ही गिन लिया गया है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की एक एक प्रकृति को ही गिना है। सत्ताधिकार में पाँचों शरीरों के पाँच बन्धन और पॉच संघातन अलग गिने जाते हैं। वर्ण ५, रस ५, गन्ध २ और स्पर्श होने से वर्ण आदि की कुल २० प्रकृतियॉगिनी जाती हैं। इनमें बन्धन और संघातन के मिलाने पर ३० हो जाती हैं। इनमें से समुच्चय रूप से गिनी जाने वाली वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श की ४ प्रकृतियाँ कम कर देने पर २६ बचती हैं अर्थात सत्ताधिकार में ५ वन्धन, ५ संघातन और १६