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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग AMAV ६३ से होने वाले जीव के ऐसे परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं । हठ, care यदि दोष इसी के फल हैं । - (१३) संज्ञी मार्गणा के दो भेद - संज्ञित्व और असंज्ञित्व | (१४) आहारक मार्गणा के दो भेद-आहारक और अनाहारक । ( कर्मग्रन्थ ४ ) ८४७ - गुणस्थान चौदह गुणों (आत्मशक्तियों) के स्थानों अर्थात् क्रमिक विकास की अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं । मोक्ष का अर्थ है आध्यात्मिक विकास की पूर्णता । यह पूर्णता एकाएक प्राप्त नहीं हो सकती। अनेक भवों में भ्रमण करता हुआ जीव धीरे धीरे उन्नति करके उस अवस्था को पहुँचता है। आत्मविकास के उस मार्ग में जीव जिन जिन अवस्थाओं को प्राप्त करता है, उन्हें गुणस्थान कहा जाता है। भारत के प्रायः सभी दर्शनों जीव के विकास क्रम को माना है । परिभाषा तथा प्रतिपादन शैली का भेद होने पर भी सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर उनमें बहुत समानता मालूम पड़ती है । श्राध्यात्मिक विकास का विचार करते समय जीव को मुख्य तीन अवस्थाओं में बाँटा जा सकता है (क) पहली अवस्था वह है जिस में जीव अनन्त काल से घूमता था रहा है । आत्मा स्थायी सुख और पूर्ण ज्ञान के लिए तरसता । दुःख और अज्ञान को विल्कुल पसन्द नहीं करता, फिर भी वह अज्ञान और दुःख के चक्कर में पढ़ा हुआ है । यहाँ दो प्रश्न खड़े होते हैं - आत्मा सुख और ज्ञान को क्यों पसन्द करता है ? तथा दुःख और अज्ञान से छुटकारा प्राप्त करने की इच्छा अनादि काल से होते हुए भी उसे छुटकारा क्यों नहीं मिलता ? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर शास्त्रकारों ने दिया है।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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