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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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सकता है, दूसरा नहीं ।
उपशमश्रेणिभावी औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति चौथे, पाँचवें, छठे या सातवें में से किसी भी गुणस्थान में हो सकती है, परन्तु आठवें गुणस्थान में तो उसकी प्राप्ति अवश्य ही होती है । श्रौपशमिक सम्यक्त्व के समय आयुबन्ध, मरण, अनन्तानुबन्धी कषाय बन्ध तथा उसका उदय ये चार बातें नहीं होतीं किन्तु उससे गिरने पर सास्वादन भाव के समय उक्त चारों बातें हो सकती हैं।
(ख) अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से होने वाला तत्त्वरुचि रूप परिणाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है।
( ग ) ऊपर लिखी प्रकृतियों के क्षय से होने वाला तत्त्वरुचि रूप परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व है। क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति केवली के समय में होने वाले मनुष्यों को ही होती है। जो जीव
युवन्ध करने के बाद इसे प्राप्त करते हैं वे तीसरे या चौथे भव में मोक्ष पाते हैं। अगले भव की आयु बाँधने से पहले जो जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं वे उसी भव में मुक्त हो जाते हैं ।
(घ) औपशमिक सम्यक्त्व का त्याग कर मिथ्यात्व के अभिमुख होते समय जीव का जो परिणाम होता है, उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं । इस की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः आवलिकाएं होती हैं । अनन्तानुवन्धी का उदय होने के कारण इस समय जीव के परिणाम निर्मल नहीं होते। सास्वादन में अतत्त्वरुचि अव्यक्त होती है और मिथ्यात्व में व्यक्त, यही दोनों में अन्तर है ।
(ङ) मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से होने वाले तव और तत्त्व दोनों की रुचि रूप मिश्र परिणाम को मिश्र सम्यक्त्व (सम्यङ् मिध्यात्व) कहते हैं ।
(च) जिस के होने से जीव जड़ चेतन का भेद न जान सके, आत्मोन्मुख प्रवृत्ति वाला न हो सके, मिथ्यात्व मोहनीय के उदय