________________ श्री जैन सिद्धान्न बोल मंग्रह, पाच ग भाग 441 ~~*~* * * * *mn . मैं भापको रवमाने के लिए आया हूँ। मेरी तरफ से आपको जो कष्ट हुआ है उसके लिए मैं क्षमा चाहता है। पंथक मनि के उपरोक्त वचनों को सन कर शैलक राजर्षि को प्रतिबोध हुआ और विचार करने लगे कि राज्य का त्याग करके मैंने दीक्षा ली है अब मुझे अशनादि में मूर्छाभाव रख कर संयम में शिथिल न बनना चाहिए। ऐसा विचार कर शैलक रामर्षि दूसरे दिन प्रातः काल ही मण्डूक राजा को उसके पीठ फलक आदि सम्भला कर संयम में दृढ़ हो कर विहार करने लगे। इस वृत्तान्त को मन कर उनके दूसरे शिष्य भी उनकी सेवा में आगये और गुरु की सेवा शुश्रूषा करते हुए विचरने लगे। बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन कर शैलक राजर्पि और पंथक आदि पाँच सौ ही निग्रन्धों ने सिद्ध पद प्राप्त किया / इस अध्ययन के अन्त में भगवान् ने मुनियों को उपदेश करते हुए फरमाया है कि जो साधु साध्वी प्रमाद रहित होकर संयम मार्ग में प्रवृत्ति करेंगे वे इस लोक में पूज्य होंगे और अन्त में मोक्ष पद को प्राप्त करेंगे। (6) तुम्बे का दृष्टान्त छठा 'तुम्बक ज्ञात' अध्ययन-प्रमादी को अनर्थ की प्राप्ति और अप्रमादी को अर्थ की प्राप्ति होती है अर्थात् प्रमाद से जीव भारीकर्मा और अप्रमाद से लघुकर्मा होता है। इस बात को बतलाने के लिए छठे अध्ययन में तुम्बे का दृष्टान्त दिया गया है। जैसे किसी तुम्बे पर डाभ और कुश लपेट कर मिट्टी का लेप कर दिया जाय और फिर उसे धूप में सुखा दिया जाय / इसके बाद क्रमशः हाभ और कुश लपेटने हुए आठ बार उसके ऊपर मिट्टी का लेप कर दिया जाय / इसके पश्चात् उस गुम्बे को पानी