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श्री जैन सिद्धान्त घोल संग्रह, पांचवां भाग
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इस तरुण वय में यह कठोर व्रत (मुनिव्रत) धारण किया है ? इन वातों का उत्तस्मै भापके मुख से सुनना चाहता हूँ।
राजा के प्रश्न को सुन कर मुनि कहने लगे कि हे राजन् ! मैं अनाय हूँ, मेरा रतक कोई नहीं है और न मेरा कोई कृपालु मित्र ही है। इसी लिए मैंने मुनिव्रत धारण कर लिया है।
योगीश्वरका उत्तर सुन कर मगध देश के अधिपति राजाश्रेणिक को हंसी आ गई। वह योगीश्वरसे कहने लगा कि क्या आप जैसे प्रभावशाली तथा समृद्धिशाली पुरुष को अभी तक कोई स्वामी नहीं मिल सका है ? हे योगीश्वर ! यदि सचमुच आपका कोई सहायक नहीं है तो मैं सहायक होने को तैयार हूँ। मनुष्यभव (जन्म) अत्यन्त दुर्लभ है इस लिए आप मित्र तथा स्वजनों से युक्त होकर सुखपूर्वक हमारे पास रहो और यथेच्छ भोगों को भोगो।
योगीश्वर कहने लगे कि हे मगधेश्वर श्रेणिकातू स्वयं ही अनाथ है। जो स्वयं अनाथ है वह दसरों का नाथ कैसे हो सकता है ? मुनि के वचन सुन कर राजा को अति विस्मय एवं आश्चर्य हुआ क्योंकि राजा के लिए ये वचन अश्रुतपूर्व थे। इससे पहले राजा ने ऐसे वचन कभी किसी से नहीं सुने थे। अतः उसे व्याकुलता और संशय दोनों ही हुए। राजा को यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह योगी मेरी शक्ति, सामर्थ्य तथा सम्पत्ति को नही जानता है। इसी लिए ऐसा कहता है। राजा अपना परिचय देता हुआ योगीश्वर से कहने लगा कि मैं अनेक हाथी, घोड़ों, करोडों आदमियों, शहरों एवं देशों (अंगदेश और मगध देश) कास्वामी हूँ। सुन्दर अन्तःपुर में मनुष्य सम्बन्धी सर्वोत्तम भोग भोगता हूँ। मेरी सत्ता (आज्ञा) और ऐश्वर्य अनुपम हैं। इतनी विपुल सम्पत्ति होने पर भी मैं अनाथ कसे हूँ ? हे मुनीश्वर! कहीं भापका कथन असत्य तो नहीं है ? मुनि कहने लगे कि राजन् ! तू अनाथ और