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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, पाचवां भाग ४०३ ____
- wwwm rnrmmon a marrrrrrrrrrr ~ (१३) अकल्प्य त्याग- मुनि भकल्पनीय पिंड, शय्या, वन पौर पात्र आदि को ग्रहण न करे । नित्य आमंत्रित आहार, क्रीस भाहार, प्रौदेशिक माहार तथा पाहत आहार आदि को ग्रहण नफरे अर्थात् कोई गृहस्थ साधु से ऐसा निवेदन करे कि 'भगवन् ! भाए भिक्षा के लिये कहाँ फिरते फिरेंगे, कृपया नित्यप्रति मेरे ही घर से शाहार ले लिया करें गृहस्थ के इस निवेदन को स्वीकार कर नित्य प्रति उसी के घर से माहार भादि लेना नित्य मामंत्रित पिण्ड कहलाता है। इसी प्रकार गृहस्थ के एक जगह से दूसरी जगह जाने से क्षेत्र भेद होने पर भी सदा उसीफे यहाँ से भिन्न भिन्न परिवर्तित स्थानों पर जाफर आहार लेना नित्य पिण्ड ही है। साधु के निमित्त मोल लाया हुभा पदार्थ क्रीत फालासा है। साधु के वास्ते तैयार किया हुभा पदाथे औदेशिक कहलाता है। साधु के लिये साधु के स्थान पर लाया हुआ पदार्थ भाहल फरलाता है। साधु के लिये उपरोक्त भाहार आदि पदार्थ अकल्पनीय हैं क्योंकि उपरोक्त आहार आदि को लेने से साधु को छःकाया के जीवों की हिंसा की भनुमोदना लगती है। अतः धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले निष्परिग्रह साधु को मौदेशिकादि माहार ग्रहण न करना चाहिये।
जिस प्रकार मुनि के लिये सदोष आहार अकल्पनीय है उसी प्रकार यदि शय्या,वस्त्र और पात्र आदि सदोष हों तो वे भी मुनि के लिये अकल्पनीय हैं।
(१४) भाजन- साधु को गृहस्थी के वर्तनों में अर्थात् कांसी, पीतल भादिकीयाली या कटोरीमादि में भोजन न करना चाहिए। इसी प्रकार मिट्टी के बर्तनों में भी साधु को भोजन न करना चाहिए। गृहस्थी के बर्तनों को वापरने से साधु को पूर्वकर्म और पश्चात्कर्म आदि कई दोष लगते हैं अर्थात् नव साधु गृहस्थ के बर्तनों में