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६८ . श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला,
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm लिखा है। अविकास काल को उन्होंने ओघदृष्टि तथा विकास काल को सदृष्टि का नाम दिया है। सदृष्टि के मित्रा, तारा, बला,दीमा,स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परानाम वाले आठ विभाग हैं। इनमें विकास का क्रम उत्तरोत्तर अधिक होता जाता है। मित्रा आदि पहली चार दृष्टियों में विकास होने पर भी अज्ञान और मोह की प्रबलता होती है। स्थिरा आदि पिछलीचार दृष्टियों में ज्ञान और चारित्र की अधिकता तथा मोह की कमी हो जाती है ।
दूसरे प्रकार के वर्णन में हरिभद्रसूरि ने आध्यात्मिक विकास के क्रम को योग के रूप में वर्णन किया है। योग के उन्होंने पॉच भाग किए हैं- अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिक्षय । ___ ये दोनों प्रकार के विचार प्राचीन जैन गुणस्थान के विचारों का नवीन पद्धति से वर्णन मात्र है।
आजीवक दर्शन इस दर्शन का स्वतन्त्र साहित्य और सम्प्रदाय नहीं है, तो भी इनके आध्यात्मिक विकासक्रम सम्बन्धी विचार वौद्ध ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । आजीवक दर्शन में आठ पेडियाँ मानी गई हैंमन्दा, खिड्डा, पदवीमंसा, उजुगत, सेख, समण, जिन और पन्न। इन आठों में पहले की तीन अविकास काल तथा पीछे की पाँच विकासकाल की हैं। उसके बाद मोक्ष हो जाता है।
गुणस्थान का सामान्य स्वरूप आत्मा की अवस्था किसी समय अज्ञानपूर्ण होती है। यह अवस्था सव से प्रथम होने के कारण निकृष्ट है। उस अवस्था से आत्मा अपने खाभाविक चेतना, चारित्र आदि गुणों के विकास द्वारा निकलता है। धीरे धीरे उन शक्तियों के विकास के अनुसार क्रान्ति करता हुआ विकास की पूर्णता अर्थात् अन्तिम हद्द को पहुँच जाता है। पहली निकृष्ट अवस्था से निकल कर विकास की अन्तिम