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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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(१) क्षिप्त (२) मूढ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र (५) निरुद्ध । इन पाँचों में पहली दो अथोत् क्षिप्त और मूढ अविकासको अवस्थाए हैं। तीसरी विक्षिप्त भूमिका अविकास और विकास का सम्मेलन है, किन्तु उस में विकास की अपेक्षा अविकास का वल अधिक है। चौथी एकाग्र भूमिका में विकास का बल अधिक है। वह बढ़ते हुए पाँचवीं निरुद्ध भूमिका में पूरा हो जाता है । पाँचवीं भूमिका के बाद मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
वौद्धदर्शन बौद्ध साहित्य के मूल ग्रन्थ पिटक कहे जाते हैं। पिटकों में अनेक जगह आध्यात्मिक विकास के क्रम का व्यवस्थित और स्पष्ट वर्णन है । वहॉ व्यक्ति की छः स्थितियाँ की गई हैं-(१) अन्धपुथुञ्जन (२) कल्याणपुथुञ्जन (३) सोतापन्न (४) सकदागामी (५)ोपपातिक (६) अरह। पहली स्थिति आध्यात्मिक विकास का काल है। दूसरी स्थिति में विकासथोड़ाऔर अविकास अधिक होता है। तीसरी से छठी तक आध्यात्मिक विकास बढ़ता जाता है। छठी स्थिति में वह अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। इसके बाद जीव निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
जैन दर्शन जैन आगमों में आध्यात्मिक विकासक्रम के लिए चौदह गुणस्थान बताए गए हैं। इनके नाम और स्वरूप आगे दिए जाएंगे। चौदह गुणस्थानों में पहला अविकास काल है। दूसरे और तीसरे गुणस्थान में विकास का किंचित् स्फुरण होता है। उनमें प्रवलता अविकास की ही रहती है । चौथे गुणस्थान में जीव विकास की ओर निश्चित रूप से बढ़ता है। चौदहवें गुणस्थान मे विकास अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है और उसके बाद मोत हो जाता है।
इसी प्राचीन विकास क्रम को हरिभद्रसूरी ने दूसरे प्रकार से