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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
अवस्था को प्राप्त करना ही आत्मा का परमसाध्य है । इस परमसाध्य की सिद्धि होने तक आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, ऐसी अनेक अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। इन्हीं अवस्थाओं की श्रेणी को विकासक्रम या उत्क्रान्तिमार्ग कहते हैं । जैन शास्त्रों में इसे गुणस्थान कहा जाता है । इस विकासक्रम के समय होने वाली आत्मा की भिन्न भिन्न अवस्थाओं का संक्षेप १४ भागों में कर दिया है। ये चौदह भाग गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं । दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान, संक्षेप, ओघ, सामान्य और जीवसमास शब्दों से भी कहे जाते हैं। चौदह गुणस्थानों में उत्तरोत्तर विकास की अधिकता है। विकास की न्यूनाधिकता श्रात्मिक स्थिरता की न्यूनाधिकता पर अवलम्बित है। स्थिरता, समाधि, अन्तर्दृष्टि, स्वभावरमण, स्वोन्मुखता, इन सब शब्दों का मतलब एक ही है। स्थिरता का तारतम्य (न्यूनाधिकता ) दर्शन और चारित्र की शुद्धि के तारतम्य पर निर्भर है। दर्शनशक्ति का जितना अधिक विकास, जितनी अधिक निर्मलता होती है उतना ही अधिक सद्विश्वास, सद्रुचि, सद्भक्ति, सत् श्रद्धा और धर्म का
ग्रह दृढ़ होता जाता है। दर्शन शक्ति के विकास के बाढ चारित्र शक्ति के विकास का नम्बर आता है । चारित्र शक्ति का जितना अधिक विकास तथा निर्मलता होती है उतनी ही क्षमा, सन्तोष, गाम्भीर्य, इन्द्रियजय आदि गुणों का आविर्भाव होता है । जिस क्रियाकाण्ड से इन गुणों का विकास न हो उसे चारित्र का अङ्ग नहीं कहा जा सकता । दर्शन और चारित्र की विशुद्धि के साथ साथ आत्मा की स्थिरता भी बढ़ती जाती है। दर्शन व चारित्र शक्ति की विशुद्धि का बढ़ना घटना उन शक्तियों के प्रतिबन्धक (रोकने वाले) संस्कारों की न्यूनता, अधिकता या मन्दता, तीव्रता पर अवलम्बित है। पहले तीन गुणस्थानों में दर्शन और चारित्र का
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