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मृत्यु उसके लिए असह्य हो गई। उस का रुदन सन कर मास पास के लोग भी शोक करने लगे। उस समय अभयकुमार नागरथिक के घर आया और सुलसा को सान्त्वना देने के लिए फहने लगा- सुलसे ! धर्म पर तुम्हारी दृढ़ श्रद्धा है। तुम उसके मर्य को पहिचानती हो । अविवेकी पुरुष के समान विलाप करना तुम्हें शोभा नहीं देता। यह संसार इन्द्रजाल के समान है। इन्द्रधनुष के समान नश्वर है। हाथी के कानों के समान चपल है। सन्ध्या राग के समान अस्थिर है। कमलपत्र पर पड़ी हुई बंद के समान क्षणिक है। मगतृष्णा के समान मिथ्या है । यहाँ जो आया है वह अवश्य जायगा। नष्ट होने वाली वस्तु के लिए शोक करना वृथा है। अभयकुमार के इस प्रकार के वचनों को सुन कर सुलसा और नाग रथिक का शोक कुछ कम हो गया । संसार की विचित्रता को समझ कर उन्होंने दुःख करना छोड़ दिया।
कुछ दिनों बाद भगवान महावीर चम्पानगरी में पधारे। नगरी के बाहर देवों ने समवसरण की रचना की। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। देशना के अन्त में अम्बड़ नाम का विद्याधारीश्रावक खड़ा हुआ। विद्या के बल से वह कई प्रकार के रूप पलट सकता था। वह राजगृही का रहने वालाथा। उसने कहा-प्रभो! आपके उपदेश से मेरा जन्म सफल होगया। अव में राजगृही जा रहा हूँ। __भगवान् ने फरमाया- राजगृही में झुलसानाम बालीश्राविका है। वह धर्म में परम दृढ़ है।
अम्बड़ ने मन में सोचा-सुलसा श्राविका बड़ी पुण्यशालिनी है, जिसके लिए भगवान् स्वयं इस प्रकार कह रहे हैं। उसमें ऐसा कौन सागुण है जिससे भगवान् ने उसे धर्म में दृढ़ वताया। मैं उसके सम्यक्त्व की परीक्षा करूँगा।यह सोच कर उसने परिव्राजक (संन्यासी) का रूप बनाया और सुलसा के घर जाकर कहा- भायुष्मति !