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श्री सेठिया जैन मन्यमाला
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में नमस्कार किया और भयोध्या में चल कर उसे पावन करने की प्रार्थना की। सीता ने कहा- मत्स ! अयोध्या चलने में मुझे कोई एतराज नहीं है किन्तु जिस लोकापवाद से डर कर राम ने मेरा त्याग कियाथा वह तो ज्यों का त्यों बना रहेगा। इसलिए मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि अपने सतीत्व की परीक्षा देकर ही मैं अयोध्या में प्रवेश करूँगी।
राम के पास आकर लक्ष्मण ने सीता की प्रतिज्ञा कह सुनाई। सती सीताको निष्कारण वन में छोड़ देने के कारण होने वाले पश्चात्ताप से राम पहले से ही खिन्न हो रहे थे। सीता की कठिन प्रतिज्ञा को सुन फर वे और भी अधिक खिन्न हुए। राम के पास अन्य कोई उपाय न था, वे विवश थे। उन्होंने एक अग्नि का कुण्ड बनवाया। इस दृश्य को देखने के लिए अनेक सुर नर वहाँइकटे हुए
और उत्सुकता पूर्ण नेत्रों से सीता की ओर देखने लगे। अग्नि अपना प्रचण्ड रूप धारण कर चुकी थी। उसकी ओर बॉख उठा कर देखना भी लोगों के लिए कठिन हो गया। उस समय सीता अग्निकुण्ड के पास आकर खड़ी हो गई और उपस्थित देव थोर मनुष्यों के सामने अग्नि से कहने लगी
मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नमध्ये, यदि मम पतिभावो राघवादन्यपुंसि । तदिह दह शरीरं पापकं पावक ! त्वं, खुकृत निकृतकानां स्वं हि सर्वत्र साक्षी ॥
अर्थात- मन, वचन या ाया में, जागते समय या स्वप्न में यदि रामचन्द्र जी को छोड कर किसी दूसरे पुरुप में मेरा पतिभाव हुप्रा हो तो हे अग्नि ! तुम दम पापी शरीर को जला डालो । सदाचार और दुराचार के लिए इस समय तुम्हीं सक्षी हो।। ऐसा कह कर मीता उस अग्निकुण्ड में कूद पड़ी तत्काल अग्नि