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भी चैन सिमान्त बोत्र सग्रह, पांचवा भाग
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बुझ कर वह कुण्ड जल से भर गया । शीलरनक देवों ने जल में कमल परसिंहासन बना दिया और सती सीता उस पर बैठी हुई दिखने लगी । यह दृश्य देख कर लोगों के हर्प का ठिकाना न रहा । सती के जयनाद से भाफाश गूंज उठा। देवताओं ने सती पर पुष्पवृष्टि की।
राम उपस्थित जनसमाज के सामने पश्चात्ताप करने लगेमैंने सती साध्वी पत्नी को इतना कष्ट दिया। सत्यासत्य का निर्णय किए बिना केवल लोकापवाद से डर कर भयङ्कर वन में छोड़ कर मैंने उसे प्राणान्त कष्ट दिया। यह मेरा अविचारपूर्ण कार्य था। सती को कष्ट में राल कर मैंने भारी पाप उपार्जन किया है। मैं इस पाप से कैसे छूटेंगा। इस प्रकार पश्चात्ताप में पड़े हुए अपने पति को देख कर सीता कहने लगी- नाथ! आपका पश्चाताप करना व्यर्थ है। सोने को अग्नि में तपाने से उसकी कीमत बढ़ती है घटती नहीं । इसी प्रकार आपने मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाई है। यदि यह सारा बनाव न बना होता तो शील का माहात्म्य कैसे प्रकट होता ? इस लिए आपको पश्चात्ताप करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार पति पत्नी के संवाद को सुन कर सब लोग कहने लगे कि-सर्वत्र सत्य की जय होती है । सती सीता सत्य पर अटल थी। अनेक विपत्तियाँ बाने पर भी वह शील में दृढ़ रही इसी लिए प्राज उसकी सर्वत्र जय हो रही है।
उस समय चार ज्ञान के धारक एक मुनिराज वहाँ पधारे । सब लोगों ने विनयपूर्वक वन्दना की और धर्मोपदेश सुनने की इच्छा प्रकट की। विशेष लाभ समझ कर मुनिराज ने धर्मोपदेश फरमाया। कितने ही सुलभवोधि जीवों ने वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा अङ्गीकार की। सीता ने मुनिरान से पूछा- हे भगवन् । पूर्व जन्म में मैंने ऐसा कौन सा कार्य किया जिससे मुझ पर यह कलंक