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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ।
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इस प्रकार चारों तरफ से असहायता और अनाथता का अनुभव होने से मैंने सोचा कि इस अनन्त संसार में ऐसी वेदनाएं सहन करनी पड़ें यह वात बहुत असह्य है इस लिए अब की बार यदि मैं इस दारुण वेदना से छूट जाऊँ तोक्षांत (क्षमाशील), दान्त तथा निरारम्भी होकर तत्क्षण ही संयम धारण करूँगा। हेराजन्! ‘रात्रि को ऐसा निश्चय करके मैं सो गया। ज्यों ज्यों रात्रि व्यतीत होती गई त्यों त्यों वह मेरी दारुण वेदना भी क्षीण होती गई। प्रातः काल तो मैं बिलकुल नीरोग हो गया। अपने माता पिता से आज्ञा लेकर क्षान्त, दान्त और निरारम्भी होकर संयमी (साधु) बन गया। संयम धारण करने के बाद मैं अपने आपका तथा समस्त त्रस और स्थावर जीवों का नाथ (रक्षक) हो गया।
हे राजन् ! यह आत्मा ही प्रात्मा के लिये वैतरणी नदी तथा कूटशाल्मली वृक्ष के समान दुःखदायी है और यही कामधेनु तथा नन्दन वन के समान सुखदायी भी है। यह आत्मा ही मुख दुःख काकर्ता और भोक्ता है। यदि सुमार्ग पर चले तो यह आत्मा ही अपना सब से बड़ा मित्र है और यदि कुमार्ग पर चले तो आत्मा ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है।
इस प्रकार अनाथी मुनि ने राजा श्रेणिक को अपना पूर्ववृत्तान्त सुना कर यह बतलाया कि मुझे किस प्रकार वेदनासहन करनी पड़ी और किस प्रकार मुझे अनाथता का अनुभव हुआ।छः काय जीवों के रक्षक महाव्रतधारी मुनिराज ही सच्चे सनाथ (रक्षक) हैं किन्तु मुनिवृत्ति धारण करके जो उसका सम्यक् प्रकार से पालन नहीं कर सकते वे भी अनाथ ही हैं । यह दूसरे प्रकार की अनाथता है। इसका वर्णन इस अध्ययन की अड़तीसवीं गाथा से लेकर तरेपनवीं गाथा तक किया गया है। अतः उन पन्द्रह गाथाओं का भावार्थ क्रमशः नीच दिया जाता है -