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श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
पद्मोत्तर उससे कहने लगा-द्रौपदी ! तुम मेरे साथ भोग भोगो। यह राज्य तुम्हारा है। यह सारा वैभव तुम्हारा है । इसे स्वीकार करो। मैं तुम्हें सभी रानियों में पटरानी मानूँगा। सभी काम तुम्हें पूछ कर करूँगा। इस प्रकार कई उपायों से उसने द्रौपदीको सतीत्व से विचलित करने का प्रयत्न किया किन्तु द्रौपदी के हृदय में लेशमात्र भी विकार नहीं पाया।वह पंच परमेष्ठी का ध्यान करती हुई तपस्या में लीन रहने लगी।
• द्रौपदी का हरण हुआ जान कर पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के पास , जाफर सारा हाल कहा।यह सुन कर श्रीकृष्ण भी विचार में पड़ गए। . द्रौपदी का पता लगाने के लिए वे उपाय सोचने लगे। इतने में नारद ऋषि वहॉभा पहुँचे।श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा-नारदजी! आपने कहीं द्रौपदी को देखा है ? नारद ने उत्तर दिया- धातकीखण्ड द्वीप में अमरकंका नगरी के राजा पद्मोत्तर के अन्तःपुर में मैंने द्रौपदी जैसी स्त्री देखी है । यह सुन कर श्रीकृष्ण ने मुस्थित देव की आराधना की । पाँच पाण्डव और श्रीकृष्ण छहों रथ में बैठ कर अमरकंका पहुँचे और नगरी के बाहर उद्यान में ठहर गए। पाँचों पाण्डव पद्मोत्तर राजा के साथ युद करने गए किन्तु हार कर वापिस चले आए। यह देख कर श्रीकृष्ण स्वयं युद्ध करने के लिये गए। राजा पद्मोत्तर हार कर किले में घुस गया । श्री कृष्ण ने किले पर चढ़कर विकराल रूप धारण कर लिया और पृथ्वी को इस तरह कँपाया कि बहुत से घर गिर पड़े । पद्मोत्तर डर कर श्रीकृष्ण के पैरों में आ गिरा और अपने अपराध के लिए क्षमा मांगने लगा। श्रीकृष्ण द्रौपदी को लेकर वापिस चले आए।
उसी समय धातकीखण्ड के मुनिमुव्रत नाम के तीर्थङ्कर धर्मदेशना दे रहे थे। वहाँ कपिल नाम के वासुदेव ने उनसे श्रीकृष्ण के आग. मन की बात सुनी। वह उनसे मिलने के लिए समुद्र के किनारेगया।