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श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग २८५
~~~~ ~~~~~ श्रीकृष्ण पहले ही रवाना हो चुके थे । समुद्र में जाते हुए श्रीकृष्ण के रथ की ध्वजा को देख कर धातकीखण्ड के वासदेव कपिल ने उनसे मिलने के लिए अपना शंख बजाया। श्रीकृष्ण ने भी उसका उत्तर देने के लिए अपनाशंख बजाया। दोनों वासुदेवों की शंखों से बातचीत हुई।
पॉचों पाण्डव तथा श्रीकृष्ण द्रौपदी के साथ लवण समुद्र को पार करके गंगा के किनारे आए और वहॉ से अपनी राजधानी में पहुंच गए।
एक बार पाण्डवों ने राजसय यज्ञ किया।देश विदेश के सभी राजाओं को निमन्त्रण भेजा गया।इन्द्रप्रस्थपुरी कोखूब सजाया गया। वह साक्षात् इन्द्रपुरी सी मालूम पड़ने लगी। मयदानव ने सभा मण्डप रचने में अपूर्व कौशल दिखलाया। जहाँ स्थल था वहाँ पानी दिखाई देता था और जहाँ पानी था वहाँ सूखी जमीन दिखाई देतीथी।देश विदेश के राजा इकटे हुए। युधिष्ठिर के चरणों में गिरे। दुर्योधन वगैरह सभी कौरव भी आए। ___एक बार द्रौपदी और भीम बैठे हुए सभामण्डप को देख रहे थे। इतने में वहाँ दर्योधन आया।सूखी जमीन में पानी समझ कर उसने कपड़े ऊँचे उठा लिये । पानी वाली जगह को सुखी जमीन समझ कर वैसे ही चला गया और उसके कपड़े भीग गए। द्रौपदी और भीम यह सब देख रहे थे, इस लिए हंसने लगे। द्रौपदी ने मज़ाक करते हुए कहा-अन्धे के बेटे भी अन्धे ही होते हैं।
दुर्योधन के दिल में यह बात तीर की तरह चुभ गई। उसने मन ही मन इस अपमान का बदला लेने के लिए निश्चय कर लिया।
दुर्योधन का मामा शंकुनि षड्यंत्र रचने में बहुत चतुर था। जुए में सिद्धहस्त था। उसका फेंका हुआ पासा कभी उल्टा न पड़ता था। दुर्योधन ने उसी से कोई उपाय पूछा।