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श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला
शकुनि ने उत्तर दिया-- एक ही उपाय है। तुम युधिष्ठिर को जमा खेलने के लिए तैयार करो। इसके लिए उनके पास विदरजी काभेज दो। उनके कहने से वे मान जाएँगे।धृतराष्ट्र से तुम स्वयं पूछ लो। खेलते समय यह शर्त रक्खो कि जो हारे वह राजगद्दी छोड़ दे। तुम्हारी तरफ से पासे मैं फेकूँगा। फिर देखना, एक भी दाव उल्टा न पड़ेगा।
दुर्योधन ने उसी प्रकार किया। अपने पिता धृतराष्ट्र को पैरों में गिर कर तथा उल्टी सीधी बातें करके, मना लिया। पुत्रस्नेह के कारण वे उसकी बात को बुरी होने पर भी न टाल सके। विदुर के कहने पर युधिष्ठिर भी तैयार हो गए। जुआ खेला गया। एक तरफ दुर्योधन, शकुनि और सभी कौरव थे, दूसरी ओर पाण्डव । शकुनि के पासे विल्कुल ठीक पड़ रहे थे। युधिष्ठिर अपने राज्य को हार गए।चारों भाई तथा अपने को हार गए। अन्त में द्रौपदी को भी हार गए। जुए में पड़ कर वे अपनी राजलक्ष्मी, अपने और भाइओं के शरीर तथा अपनी रानी द्रौपदी सभी को खो बैठे। वे सभी दुर्योधन के दास बन चुके थे।
महाराजा दुर्योधन का दरबार लगा हुआ था।भीष्म,द्रोणाचार्य, विदुर आदि सभी अपने अपने आसन पर शोभित थे। एक तरफ पांचों पाण्डव अपना सिर झुकाए बैठे थे। इतने में दुःशासन द्रौपदी को चोटी से पकड़ कर लाया। दरवाजे पर द्रौपदी थोड़ी सी हिचकिचाई तो दुःशासन ने एक धप जमाया और भरीसभा में द्रौपदी को खींच लिया।
द्रौपदी का क्रोध भभक उठा । सिंहिनी के समान गर्नते हुए उसने कहा- पितामह भीष्माचार्य द्रोण! विदुरजी ! क्या
आप इस समय शान्त वैठे रहना ही अपना कर्तव्य समझते हैं ? द्रुपद राजा की पुत्री, पाण्डवों की धर्मपत्नी तथा धृतराष्ट्र की कुल