________________ 412 श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला (15) कलह करना। (16) खुले झुंह अयतना से बोलना / (17) स्त्री के अंग उपांग निहारना (निरखना)। (18) फाफा, मामा आदि सांसारिक सम्बन्ध के नाम से सम्बोधन करना। मात से अठारह तक ये वारह नाते, पौषध लेने के बाद की जायें तो दोप रूप हैं / पौषध के इन अठारह दोपों का परिहार करके शुद्ध पौपध करना चाहिये। (श्रावक के चार शिक्षाबत) 865- अठारह पापस्थानक__ पाप के हेतु रूप हिंसादि स्थानक पापस्थानक हैं। पापस्थानक अठारह हैं (1) माणातिपात- प्रमाद पूर्वक प्राणों का प्रतिपात करना अर्थात् आत्मा से उन्हें जुदा करना प्राणातिपात (हिंसा) है / हिंसा की व्याख्या करते हुए शास्त्रकार फहते हैं: पञ्चन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छ्वास निःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता स्तेषां वियोजीकरणं तु हिसा / / अर्थात्- पाँच इन्द्रियाँ,मनचल,वचनबल,कायवान,श्वासोच्छ्वास और ग्रायु ये भगवान ने दश प्राया कहे है। इन का श्रात्मा से पृथक करना हिंसा है। __ प्राणातिपात द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। विनाश, परिताप और संक्लेश के भेद से यह तीन प्रकार का है। पयोय का नाश करना विनाश है, दुःख उत्पन्न करना परिताप है। और क्लेश पहुँचाना संक्लेश है। करण और योग के भेद से यह नव प्रकार का है। इन्ही नो भेदों को धार कपाय से गुणा करने