________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग से प्राणातिपात के छत्तीस भेद होजाते हैं। (2) मृषावाद- मिथ्या वचनों का कहना मृपावाद है। मृषाबाद द्रव्य, भाव के भेट से दो प्रकार का है। अभूतोद्भावन, भूतनिव, वस्त्वन्तरन्यास और निन्दा के भेद से इसके चार प्रकार हैं। ये चारों प्रकार इस ग्रन्थ के प्रथम भाग के 270 वे बोल में दिये हैं। (3) अदत्तादान- स्वामी,जीव,तीर्थकर और गुरु द्वारा नदी हुई सचित्त,अचिस और मिश्र वस्तु को विना आज्ञा प्राप्त किये लेना अदत्तादान अर्थात् चोरी है। महाव्रत की व्याख्या देते हुए इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग के ३१६वें बोल में इसका विशद वर्णन है। (4) मैथुन- स्त्री पुरुष के सहवास को मैथुन कहते हैं। देव, मनुष्य और तिर्यश्च के भेद से तथा करण और योग के भेद से इसके भनेक भेद हैं। अब्रह्मचर्य के भठारह भेद इस भाग में अन्यत्र दिये हैं। (5) परिग्रह- मूर्यो- ममता पूर्वक वस्तुओं का ग्रहण करना परिग्रह है / बाह्य और प्राभ्यन्तर के भेद से परिग्रह दो प्रकार का है। धर्मसाधन के सिवाय धन धान्यादि ग्रहण करना बाह्य है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि प्राभ्यन्तर परिग्रह हैं। (६-६)-क्रोध, मान, माया, लोभ-कपाय मोहनीय फर्म के उदय से होने वाले जीव के मज्वलन, अहंकार, वञ्चना एवं मूर्छा रूप परिणाम क्रमशः क्रोध,मान,माया,लोभ हैं / इस ग्रन्थ के प्रथम भाग के बोल नं० 158 से १६६तथा२६१ में कपाय,प्रमाद आदि के वर्णन में इनका विशेष स्वरूप दिया गया है तथा अनन्तानुवन्धी आदि भेदों का निरूपण भी किया गया है। (10) राग- माया और लोभ जिसमें अप्रकट रूप से विधमान हों ऐसा भासक्तिरूप जीव का परिणाम राग है। (11) द्वेष-क्रोध और मान जिसमें अव्यक्त भाव से मौजूद हों ऐसा अप्रीति रूप जीब का परिणाम द्वेष है।