________________ 114 श्री मंठिया जैन ग्रन्थमाला (12) फलह- झगड़ा, राड़ करना कलह है। (13) अभ्याख्यान- प्रकटरूप से भविद्यमान दोषों का आरोप लगाना- (झूठा आल) देना अभ्याख्यान है। (14 ) पैशुन्य-पीठ पीछे किसी के दोष प्रकट करना, चाहें उसमें हों या न हों, पैशुन्य है। (15) परपरिवाद-दूसरे की बुराई करना, निन्दा करना परपरिवाद है। (16) अरति रति-मोहनीय कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों फी प्राप्ति होने पर जो उद्वेग होता है वह अरति है और इसी के उदय से अनुकूल विपयों के प्राप्त होने पर चित्त में जो आनन्द रूप परिणाम उत्पन्न होता है वह रति है। जीव को जब एक विषय में रति होती है तब दूसरे विषय में स्वतः अरति हो जाती है। यही कारण है कि एक वस्तु विपयक रति को ही दूसरे विषय की अपेक्षा से अरति कहते हैं। इसी लिये दोनों को एक पापस्थानक गिना है। (17) मायामृषा- मायापूर्वक झूठ बोलना मायामृषा है। दो दोषों के संयोग से यह पापस्थानक माना गया है। इसी प्रकार मान और मृपा इत्यादि के संयोग से होने वाले पापों का भी इसी में भन्तर्भाव समझना चाहिये / वेष बदल कर लोगों को ठगना मायामृपा है, ऐसा भी इसका अर्थ किया जाता है। (18) मिथ्यादर्शनशल्य- श्रद्धा का विपरीत होना मिथ्या दर्शन है। जैसे शरीर में चुभा हुआ शल्य सदा कष्ट देता है इसी प्रकार मिथ्या दर्शन मी आत्मा को दुखी बनाये रखता है। प्रवचनसारोद्धार में अठारह पापस्थानों में 'अरति रति' नहीं देकर छठा 'रात्रि भोजन' पापस्थानक दिया है। भगवती मुत्र शतक१ उद्देशा हमें बताया है कि इन अठारह पापस्थानों से जीव कमाँ का संचय कर गुरु बनता है। बारहवें शतक के