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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग १०७ ~~~~rmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm nwrmmmmmmm ~ rrr मोहनीय के सिवाय सात कर्मों की तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में चार श्रघाती कर्मों की निर्जरा होती है।
(१०)भाव द्वार-पहले,दूसरे और तीसरे गुणस्थान में औदयिक, सायोपशमिक और पारिणामिक तीन भाव होते हैं। चौथे से दसवेंतक पाँचों भाव होते हैं। ग्यारहवें में शायिक के सिवाय चार और वारहवें में औपशमिक के सिवा चार भाव होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में औदयिक,सायिक और पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं। सिद्धों के क्षायिक और पारिणामिक भाव होते हैं।
(११) कारण द्वार-कर्मबन्ध के निमित्त को कारण कहते हैं। इसके पॉच भेद हैं-मिथ्यात्व,अविरति,प्रमाद,कषाय और योग। पहले और तीसरे गुणस्थान में पाँचों कारण होते हैं। दूसरे और चौथे में मिथ्यात्व के सिवाय चार । पाँचवें और छठे में मिथ्यात्व तथा अविरति को छोड़ कर तीन । सातवें से दसवें तक कषाय और योग दो। ग्यारहवें, बारहवें, और तेरहवें में केवल योग होता है। चौदहवें गुणस्थान में कोई कारण नहीं होता, इस लिए वहाँ कर्मवन्ध भी नहीं होता।
(१२)परीषह द्वार-संयम के कठोर मार्ग में विचरते हुए साधु को प्रतिकूल परिस्थति के कारण जो कष्ट उठाने पड़ते हैं वे परीपह कहे जाते हैं । परीषह २२ हैं- (१) क्षुधा (२) तृषा (३) शीत (४)उष्ण(५)दंशमशक (६) अचेल (७)अरति (८) स्त्री (8) चर्या (१०)निषद्या (११)शय्या (१२)आक्रोश (१३)वध (१४)याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृणस्पर्श (१८) जल्लमैल (१६) सत्कार पुरस्कार (२०) प्रज्ञा (२१) अज्ञान और (२२) दर्शन।
चार कर्मों के उदय से येसभीपरीषद होते हैं। ज्ञानावरणीय के उदय से बीसवॉ (प्रज्ञा) और इक्कीसवॉ (अज्ञान)। वेदनीय कर्म के उदय से १ से ५ तक तथा ६,११,१३,१६,१७, १८ ये ग्यारह