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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
परीषद होते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से वाईसवाँ (दर्शन) परीषद और चारित्र मोहनीय के उदय से सात परीषह होते हैं- ६, ७, ८, १०, १२, १४ और १६ वाँ । अन्तराय कर्म के उदय से १५वाँ अलाभ परीषद होता है।
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पहले गुणस्थान से लेकर नर्वे गुणस्थान तक सभी परीषद होते हैं, जिनमें से एक समय में जीव अधिक से अधिक वीस वेदता है क्योंकि शीत और उष्ण परीषद एक साथ नहीं हो सकते । इसी प्रकार चर्या (विहार के कारण होने वाला कष्ट ) और निषद्या ( अधिक बैठे रहने के कारण होने वाला कष्ट) एक साथ नहीं हो सकते।
दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म से होने वाले माठ परीषों को छोड़ कर बाकी चौदह होते हैं । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में वंदनीय कर्म से होने वाले क्षुधा, तृषा यदि ग्यारह परीषह ही होते हैं ।
(१३) श्रात्मद्वार - पहले और तीसरे गुणस्थान में ज्ञानात्मा और चारित्रात्मा के सिवाय छः आत्माएं पाई जाती हैं। दूसरे, चौथे और पाँचवें गुणस्थान में चारित्रात्मा के सिवाय सात आत्माएं पाई जाती हैं । छठे से लेकर दसवें तक आठ आत्माएं । ग्यारहवें से तेरहवें तक कषाय के सिवाय सात आत्माएं। चौदहवें में कपाय और योग के सिवाय छः श्रात्माएं होती हैं । सिद्ध भगवान् में ज्ञान, दर्शन, द्रव्य और उपयोग रूप चार आत्माएं ही हैं।
(१४) जीव द्वार - पहले गुणस्थान में जीव के चौदह भेद पाए जाते हैं। दूसरे में छ:- इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और असंज्ञी तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त । तीसरे में एक-संज्ञी पर्याप्त। चौथे में दो-संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त । पाँचवें से लेकर चौदहवें तक एक- संज्ञी पर्याप्त ।
(१५) गुणद्वार - पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान तक जीवों